रविवार, 22 नवंबर 2015

ये जो मीडिया हैा


मीडिया प्रिंट हो या इलेक्ट्रोनिक दोनों को ही बिहार विधान सभा चुनाव में साख का घाटा उठाना पडा है। मीडिया सब पर चर्चा कर रहा है लेेकिन अपने बारे में चर्चा नहीं कर रहा है। टीवी पर लाइव चर्चाओं का स्तर ,मेहमानों का कद तथा एंकर का ज्ञान व पक्षपात देखकर श्रोताओं को मितली आने लगती थी। बडी ही होषियारी के साथ  विकास को मोदी व जाति को लालू के साथ चस्पा कर  दिया गया था । गांव गांव घूम कर गरीबी व पिछडेपन के दृष्य दिखाए जाने लगे पिछले दस के विकास को ढंककर  जंगलराज के दर्षन कराए गए । बिहार का वोटर समझ   गया था इसलिये वोटर ने जाति का नाम ही नहीं लिया हर किसी ने विकास का नाम पर  वोट देने की बात कही । जैसे ही वोटर विकास के नाम पर वोट देने की बात कहता तो माईक लिए संवाददाता उछल पडता कि देखो देखो सब तरफ विकास के नाम पर वोट पड रहा है यानि कि मोदी के नाम पर वोट पड रहा है। क्योेंकि विकास के एजेंडे  को तो मोदी के साथ चस्पा कर दिया गया था और जाति को लालू के साथ । इसी के साथ लगा कि तमाम सर्वे दफतर में ही बैठकर  पूरे कर लिये गये हों तभी तो सारे सर्वे धरे के धरे रह गए । पिंट मीडिया ने थोडा बहुत संयम बरता यही वजह थी कि कांटे की टक्कर के लेख छप सके।
आज मैने लोगो से मीडिया की भूमिका को लेकर लगभग सौ लोगो से बिहार चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर सवाल पूछे तो सबका कहना था कि मीडिया जल्द से जल्द निश्पक्षता का लबादा उतार दे तो अच्छा वरना लोग उस पर यकीन करना छोड देंगे । मीडिया को केवल सूचना का माध्यम मान कर पाठक व श्रोेता उससे प्रभावित नहीं होगा यानि जनमत निर्माण की क्षमता  मीडिया खो देगा। जनता के मूड की परख व जनमत निर्माण ही मीडिया की ताकत है और यही उसकी  प्राणवायु भी है यही छिन जाएगी तो क्या होगा? यह भी मांग उठी कि मीडिया अपनी राजनीतिक प्रतिबद्वता जाहिर व प्रकाषित कर काम करे तो यह देष के हित में भी होगा और खुद मीडिया के भी  क्योंकि ऐसी मीडिया पर पक्षपात का आरोप तो नही होगा । वैसे भी आज पाठक यह जान चुका है  कि  पूरा मीडिया कारपोरेट के कब्जे में है जो अपने हितो के अनुकूल मीडिया कर्मियों से काम कराते है। दक्षिण भारत में राजनीति से प्रतिबद्व मीडिया है जिस पर लोग यकीन भी करते  है। लोग उनकी बात सुनते है मन अपना बनाते है। मौजूदा हालात में राजनीतिक रूप से प्रतिबद्व मीडिया की जरूरत महसूस की जाने लगी है।
 पहले नेषनल हैराल्ड व जनयुग ऐसे ही अखबार थे लेकिन उनकी संख्या सीमित होने व अतिवाद के कारण अविष्सनीय होते गये। आज हालात फिर उसी ओर जाने को मजबूर कर रहे है। लेकिन उनका हश्र हैराल्ड व जनयुग जैसा नहीं होगा क्योंकि अब तादाद ज्यादा होगी ।

     भारत भूशणं

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