बुधवार, 21 दिसंबर 2016

हमें स्वाभिमान की चिंता नहीं, तो शासक क्यों फिक्र करें!

हमें स्वाभिमान की चिंता नहीं, तो शासक क्यों फिक्र करें!
आकार के हिसाब से देखें तो भारत का एक तिहाई भी नहीं है वेनेजुएला। आबादी के लिहाज से तो बिल्कुल पिद्दी। जहां भारत में सवा सौ करोड़ लोग रहते हैं वहीं वेनेजुएला में सवा तीन करोड़ भी नहीं रहते। बावजूद इसके, वहां की सरकार ने जब पिछले हफ्ते भारत की ही तरह अचानक नोटबंदी का ऐलान कर दिया तो आम लोग सन्न रह गए। लेकिन भारतवासियों की तरह वे हाथ बांधे सिर झुकाए खड़े नहीं रहे। उन्होंने इस फैसले को गलत बताते हुए इसके खिलाफ सड़कों पर विरोध शुरू कर दिया। इन्हीं सब विरोध प्रदर्शनों के बीच सरकार के इस फैसले के परिणामस्वरूप एक नागरिक की मौत हो गई और फिर दबाव इतना बढ़ा कि सरकार अपना यह फैसला स्थगित करने को मजबर हुई। सिर्फ एक मौत… और फैसला स्थगित।
इसके बरक्स देखें भारत में क्या सीन है! अव्वल तो भाई लोग यह मानने को ही तैयार नहीं कि किसी को कोई तकलीफ भी है। पूरा देश कतार में खड़ा अपने ही कमाए एक-एक पैसे के लिए रिरिया रहा है और प्रधानमंत्री जगह-जगह घूम-घूम कर दावा कर रहे हैं कि सरकार के इस फैसले से तकलीफ केवल उन्हें है जिनके पास अथाह काला धन है और जो भ्रष्ट हैं। प्रकारांतर से यह देश की मेहनतकश आबादी को गाली थी। पर किसी का खून नहीं खौला। सब सिर झुकाए मोदी सरकार की दी हुई देशभक्ति की नई-नई कसौटियों पर खुद को पास कराने की कोशिश में लगे रहे। अब तक सौ से ज्यादा नागरिक सरकार की इस सनक की बलि चढ़ चुके हैं, लेकिन सत्ता पक्ष के नेता हमें देशभक्ति और ईमानदारी का डोज दिए जा रहे हैं।
यह अकारण नहीं है। मूल सवाल हमारी नागरिक चेतना का है। धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर ही नहीं, हम पार्टियों के आधार पर भी बुरी तरह बंटे हुए हैं। इस वजह से हम यह नहीं देख पाते कि बतौर नागरिक कोई सरकार या पार्टी हमारे हितों पर किस-किस तरह से चोटें करती जा रही है। कभी हम खास सरकार और पार्टी को लेकर अति अपनेपन के भाव से ग्रस्त रहते हैं तो कभी जनता के पीड़ित हिस्से के धर्म, जाति, भाषा, प्रांत आदि के आधार पर उसके प्रति अलगाव के भाव से बंधे होते हैं। नतीजतन, बतौर नागरिक हम हमले झेलते रहते हैं और ढंग से उन्हें संज्ञान में भी नहीं ले पाते। कभी वोट देने के हमारे अधिकार को कर्तव्य में बदलते हुए उसे दंडात्मक बना दिया जाता है, कभी राष्ट्रगान को अनिवार्य करते हुए उसका खास तरीके से सम्मान करने पर मजबूर किया जाता है और कभी गैर सरकारी उपायों से हमारे रहने-सहने, खाने-पीने,  प्रेम और दोस्ती करने के तौर-तरीकों पर पाबंदियां लगाई जाती हैं।
हमें समझना होगा कि यह मामला सिर्फ शासकों की संवेदनशीलता का नहीं, नागरिक समाज की जागरूकता का भी है। शासकों की सनक को चुपचाप सहन करने वाला पालतू समाज यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि शासक उसकी जरूरत, चिंता और स्वाभिमान की परवाह करेगा

चार्वाकों के बीच

चार्वाकों के बीच 'महान आप्त पुरुष' का अवतार
कुछ लोगों को गर्व है कि भारतीय समाज ने कभी भी चार्वाक दर्शन को नहीं अपनाया, लेकिन उन्हें चिंता है कि वर्तमान में चार्वाकों की संख्या बढ़ती जा रही है। वैसे भी सुना है कि एक गहन शोध के बाद तय किया गया है कि देश के नागरिकों में देशभक्ति की भावना का ह्रास होता जा रहा है, लिहाजा इसे मजबूत किया जा रहा है। ऐसे में मैं भी इसमें अपना योगदान देते हुए यह स्वीकार कर लेता हूँ कि, हमारा देश कभी जगद्गुरु हुआ करता था, कम से कम दर्शन के क्षेत्र में तो यह वाकई समृद्ध था ही। वेदांत, मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक जैसी शाखाओं ने भारतीय दर्शन को बहुत व्यापक बना दिया।
भारतीय दर्शन के मुख्यतः दो आधार हैं, वेद विरोधी दर्शन (इसमें बौद्ध, जैन और चार्वाक आते हैं) और दूसरा  वेदानुकूल दर्शन (इसमें वेदांत, मीमांसा, योग इत्यादि को रखा जा सकता है)। दर्शन चूँकि ज्ञान की विवेचना करता है और इसके जरिये ही तथ्यों को संश्लेषित कर उन्हें स्थापित करता है, लिहाजा भारतीय दर्शन भी ज्ञान के दो मुख्य स्रोतों पर ही टिका है, प्रत्यक्ष अनुभव और दूसरा अनुमान। भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में बात करें तो कहा जा सकता है कि वेदानुकूल दर्शन अनुमान आधारित हैं जबकि चार्वाक जैसे वेद विरोधी दर्शन प्रत्यक्षानुभव आधारित। वेद विरोधी दर्शनों में चार्वाक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, हालाँकि बौद्ध और जैन मत भी काफी व्यापक हैं, लेकिन कहीं न कहीं इनकी प्रेरणा का आधार भी चार्वाक दर्शन ही है और आगे चलकर बौद्ध और जैन भी वेदों की तरह आस्तिकता को स्वीकार कर लेते हैं।
चार्वाक दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है कि प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, इसके अलावा सभी अनुमान संदिग्ध हैं। यह दर्शन कहता है कि चूँकि मृत्यु के बाद कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता है, मृत्यु के बाद कर्मों के फल की चिंता करना, स्वर्ग की कामना करना व्यर्थ है। स्वर्ग-नरक, ईश्वर-आत्मा आदि सब पुरोहितों के ढकोसले हैं, जिसे उन्होंने अपनी जीविका चलाने के उद्देश्य से गढ़ लिया है। दुःख से मुक्ति मृत्यु के बाद ही मिल सकती है, इसे पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सकता है लेकिन कम जरूर किया जा सकता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य स्वर्ग प्राप्त करना नहीं बल्कि सुख प्राप्त करना है और स्वर्ग की कामना भी इसी का प्रमाण है। लिहाजा जीवित रहते हुए ही सुख प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए। कल की आस में आज को बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। कल मोर मिलेगा इस आशा में हाथ में आया कबूतर छोड़ना मूर्खता है। संदिग्ध सोने की मुहर से प्रत्यक्ष कौड़ी अधिक उपयोगी और मूल्यवान है।
वहीं अनुमान आधारित दर्शन की शाखाओं का मुख्य रूप से मत है कि मोक्ष प्राप्ति, ईश्वर अनुभूति, आदि सभी बेहद कठिन हैं, इसलिए सभी को इनका प्रत्यक्षानुभव हो पाना असंभव है। ऐसे में लोगों को सत्य के लिए आप्त (सिद्ध) पुरुषों की बातों पर यकीन करना चाहिए। उनके अनुमानों को सत्य मानना चाहिए। लेकिन यहाँ आप्त पुरुष का निर्धारण एक बड़ी समस्या है।
modiवर्तमान सन्दर्भ में देखें तो यह कुछ वैसा ही है जैसे एक महान आप्त पुरुष, जिसके आप्त वचन प्रमाण की आवश्यकता से परे हैं, उसका अनुमान है कि 50 दिन बाद देश के नागरिकों को स्वर्ग मिल जाएगा। ऐसे में हमें तमाम तथ्यों की अनदेखी करते हुए, ‘आज’ को नरक बनाना पड़े तब भी इस अनुमान पर भरोसा कर लेना चाहिए। वैसे आप यह सवाल कर सकते हैं कि भला वह आप्त पुरुष कैसे हो गया, तो जवाब दो हैं। पहला तो यह कि सवाल और संशय चार्वाक दर्शन के आधार हैं अनुमान आधारित दर्शन के नहीं, और दूसरा यह कि वह आप्त पुरुष है क्योंकि उसने स्वयं दावा किया है।
बहरहाल, यह बिल्कुल सच है कि सभी को सभी चीजों का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो सकता है, लेकिन ज़रा एक ऐसी स्थिति पर गौर कीजिए, जिसमें वर्ण विशेष की श्रेष्ठता और नीचता चरम पर है। आप्तता का एकमात्र प्रमाण यह है कि वह वर्ण विशेष से सम्बन्ध रखता है। आडम्बर, कर्मकांड, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक जैसे विश्वासों के बोझ तले समाज दबा हुआ है। लोग इसलिए किसी की मदद नहीं करते कि मदद किये जाने की जरूरत है, बल्कि इसलिए करते हैं ताकि उन्हें पुण्य मिल सके और मरने के बाद इस पुण्य से भरी अंटी के बदले स्वर्ग में एक सीट। शासक और शोषक का पूरा प्रयास और चिंतन-मनन शोषित को जस का तस बनाये रखने का है। राजनितिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय तो दूर प्राकृतिक न्याय का दायरा भी कथित आप्त पुरुषों के हिसाब से तय होता हो। स्वतंत्र और वैज्ञानिक चिंतन की धज्जियाँ उड़ गई हों। ऐसी ही परिस्थितियों की प्रतिक्रियास्वरूप चार्वाक दर्शन एक चुनौती के तौर पर सामने आता है। तत्कालीन वैदिक दर्शन के बीच संशयवाद की शुरुआत करता है। मूलभूत विज्ञान की अवधारणा की तरह किसी तथ्य की सत्यता को परखने के लिए विवेक के इस्तेमाल की बात करता है और प्रत्यक्ष प्रमाण की मांग करता है। दिलचस्प बात यह है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में चार्वाक दर्शन का स्वतंत्र संकलन कहीं नहीं मिलता है, बल्कि कुछ जगहों पर यह जरूर कहा गया है कि इस दर्शन के प्रवर्तक देवताओं के गुरु स्वयं बृहस्पति हैं, जिन्होंने दानवों के बीच इसका इसलिए प्रचार-प्रसार किया ताकि इसे मानने से उनका विनाश खुद-ब-खुद हो जाए। वैसे दानवों का विनाश तो नहीं हुआ, लेकिन दुष्प्रचार के चलते जनसाधारण में चार्वाक दर्शन ‘यावज्जिवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत’ तक सिमट कर रह गया और एक बार फिर से लोगों ने अपनी-अपनी अंटी भरनी शुरू कर दी।modi चूँकि ‘सवाल’ तो शोषण की कुर्सी का दीमक है, लिहाजा उस पर बैठने वाले कथित आप्त पुरुषों के लिए निश्चित तौर पर इस दर्शन का अप्रसार गर्व की बात रही।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि चार्वाक दर्शन पूरी तरह से त्रुटिहीन हो, लेकिन यह भी दिलचस्प है कि माधवाचार्य जैसे वेदानुकूल दर्शन के विद्वानविरोधी होने के बावजूद चार्वाक दर्शन की अहमियत को स्वीकार करते हैं, बल्कि वह भारतीय दर्शन के क्षेत्र में संशयवाद और उसके जरिये उसे और परिष्कृत करने का भी श्रेय देते हैं। वैसे ये दीगर बात है कि वर्तमान के महान आप्त पुरुष विपक्ष के योगदान को सिरे से खारिज करते हुए पिछले 70 सालों के इतिहास को कूड़ा करार दे देते हैं।

नोटबंदी का विरोध

नोटबंदी का विरोध करनेवालों के नवविरोध के कारण

जब भी कभी जनता में सरकार, सरकारी अदाओं और कुकर्मों के खि‍लाफ आक्रोश उभरने लगता है, कई तरह की राजनीति‍क शक्‍ति‍यां काम करने लगती हैं। नोटबंदी जब फेल हो गई तो सरकार इसे कैशलेस में बदलने की अदाएं दि‍खाने लगी। चूंकि देश में अभी भी करोड़ों लोग नि‍रक्षर हैं, करोड़ों के पास मोबाइल नहीं है और कई करोड़ लोगों के पास अगर मोबाइल है भी, तो उन्‍हें कि‍सी का नंबर मि‍लाने के लि‍ए भी कि‍सी साक्षर की मदद चाहि‍ए होती है, ऐसी हालत में देश में कैशलेस इकॉनमी बनाने की कि‍सी भी कवायद की हवा नि‍कलनी लाजमी थी, सो वह भी नि‍कल ही गई। इस वक्‍त देश के जो हालात हैं, वह साफ बयान कर रहे हैं कि जनता सरकार के सीधे वि‍रोध में आ चुकी है। ऐसे वक्‍त में सरकार ने कुछ ऐसी ही डमी खड़ी की है जो वि‍रोध को लपककर इसे फि‍र से केंद्र सरकार की उन्‍हीं सारी बेवकूफि‍यों की तरफ दोबारा मोड़ देना चाहते हैं, जि‍सके लि‍ए यह सरकार कुख्‍यात है और पहले भी कुख्‍यात रही है। बाबा रामदेव ने नोटबंदी या कैशलेस के वि‍रोध में जो भी बयानात जारी कि‍ए हैं, वि‍रोध करनेवालों को उसके पीछे की साजि‍श जाननी जरूरी है।

असम में हाथि‍यों की हत्‍या के गुनहगार, देश में मि‍लावटी सामान सबसे शुद्ध कहकर बेचने वाले और अपने आड़े ति‍रछे आसनों पर लोगों की मॉर्निंग लाइफ में पलीता लगाने वाले बाबा रामदेव की असलि‍यत कि‍सी से भी नहीं छुपी। फि‍र चाहे वह सलवार कुर्ता पहनकर वि‍रोध के मंच से रातोंरात फरार हो जाने की अदा रही हो या फि‍र नोटबंदी के समर्थन में योग शि‍वि‍रों में योग की जगह भाषण पि‍लाने की, बाबा जी लगभग सभी जगह झूठ का खुला खेल फर्रुखाबादी खेलने के आदी रहे हैं। अभी भी वो जो बोल रहे हैं, मेरा मानना है कि ये वो नहीं जो बोल रहे हैं, बल्‍कि उनसे यह सब बुलवाया जा रहा है। यह सब उनसे बोलवाकर जो व्‍यापक वि‍रोध शुरू हो चुका है, और जो एकदम सही और तर्कसम्‍मत है, उसे वापस समर्थन में बदलवाने और तर्कों की तरफ से चीजों को अतार्किकता की तरफ ले जाने की साजि‍श रची गई है, जि‍से हम सबको समझना होगा।

अब जब नोटबंदी के बाद सरकार अपनी चोंचबंदी की तरफ बढ़ रही है, तो उसे इस तरह की कुछ बोलि‍यों की सख्‍त जरूरत है जो उसके न बोलने पर भी बोला करें और जो वि‍रोधि‍यों का एक ऐसा अलग खेमा तैयार कर सकें जो आने वाले दि‍नों में वि‍रोध के बहाने सरकार के समर्थन में खड़ा दि‍खाई दे और बोले कि हम भी तो वि‍रोध कर रहे हैं। लेकि‍न लोग समझदार हैं और बाबाजी के आड़े-ति‍रछे झूठों को समझ रहे हैं। इसीलि‍ए जब बाबा का वि‍रोधी बयान आया, सोशल मीडि‍या पर पहली प्रति‍क्रि‍या यही नि‍कली कि बाबाजी फि‍र से साजि‍श करने में लग गए हैं। बाबाजी का जो भी वि‍रोध दि‍ख रहा है, वह उनकी भक्‍ति की ही तरह ढोंग है और उनके पतंजलि उत्‍पादों की ही तरह मि‍लावटी है।
इसी तरह से कुछ लोगों को लगने लगा है कि भक्तगण भी नोटबंदी और कैशलेस जैसे शोशों का विरोध करना शुरू कर चुके हैं। जो लोग पहले नहीं बोलते थे, अब बोलने लगे हैं। जो लोग पहले इसके समर्थन में थे, अब एकाएक इसके विरोध में आ गए हैं। इनमें भी दो तरह के लोग हैं। पहले वह जिनके हाथ एटीएम की लाइन लगने के बाद खाली हैं तो वह नोटबंदी का विरोध करना शुरू कर देते हैं, लेकिन जैसे ही हाथ में नोट आता है, उनकी बोलती बंद हो जाती है। ऐसे लोगों को पहचानना जरूरी है क्योंकि वैचारिक रूप से यह लोग हिले हुए हैं। दूसरे वह लोग जो जानबूझकर विरोध की ऐसी हवा बना रहे हैं, जिससे कि वैचारिक रूप से हिले हुए लोग उनके पीछे आकर लग लें और वह जब चाहें, तब एक बार फिर गलत कदम उठाने वाली सरकार के हर गलत कदम के समर्थन में भीड़ बटोर सकें।

देशभक्ति, तुम फ़ुर्सत देखकर मर क्यों नहीं जाती?

देशभक्ति, तुम फ़ुर्सत देखकर मर क्यों नहीं जाती?
केरल में एक फिल्म फेस्टिवल के दौरान कुछ लोगों ने राष्ट्रगान बजने पर खड़े होने से इनकार कर दिया। वहां खड़े कुछ देशभक्तों ने अपनी स्वाभाविक जिम्मेदारी समझते हुए उनकी कुटाई कर दी। बाद में पुलिस पहुंची, उनको गिरफ़्तार किया और जमानत पर रिहा कर दिया। नहीं, घबराने की बात नहीं है। मार-पिटाई करने वाले देशभक्त अरेस्ट नहीं हुए थे। वे सिरफिरे जिन्होंने ‘जन गण मन’ के सम्मान में खड़े होने से इनकार किया, वही पकड़े गए थे।
चेन्ने में भी ऐसा ही हुआ। सिनेमा शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजा, कुछ लोग खड़े नहीं हुए, कुछ देशभक्तों को गुस्सा आया, उन्होंने जिम्मेदारी निभाई और देशद्रोहियों की पिटाई कर दी। बाद में पुलिस आई। केस दर्ज़ हुआ। दोषी पाए जाने पर आरोपियों को 3 साल जेल की सज़ा हो सकती है। तब तक के लिए भीड़ ने कूट-पीसकर उनको तात्कालिक सज़ा दे दी है। ये हवा बदली-बदली है। पिछले कुछ महीनों में मैंने देशभक्ति शब्द का जितनी बार उच्चारण सुना है, उतना पहले कभी नहीं सुना था। इसका असर अच्छा होना चाहिए था। मुझे पहले से कहीं ज्यादा देशभक्त हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। उल्टा मुझे देशभक्ति से चिढ़ हो रही है। आपके चश्मे से देखा जाए, तो मैं देशद्रोही हो रही हूं।
इतनी बार देशभक्ति का नाम लिए जाने और बात-बात पर उसे दांव पर लगाने की इस हरकत ने खुद उसी को लहूलुहान कर दिया है। आपको शायद नहीं दिखता, पर रोजमर्रा की छोटी-छोटी, गैरजरूरी बातों पर अपना हवाला दिए जाने से देशभक्ति घायल हो गई है। उसका घाव नहीं भरा गया तो जल्द ही उसके संक्रमित हो जाने का खतरा है। इस तरह तो देशभक्ति की सारी गंभीरता ही खत्म हो जाएगी। हमारे हाथों बेइज्जत होकर मरने से तो बेहतर है कि वह खुद ही अपना गला घोंट ले।
बचपन से लेकर आज तक, एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब ‘जन गण मन’ सुनकर मैं खड़ी ना हुई होऊं। मैंने बहुत कोशिश कि एक ऐसा मौका याद करने की, लेकिन याद नहीं कर पाई। मुझे नहीं याद कि बचपन में कब, किसने सिखाया था कि राष्ट्रगान बजने पर खड़े होना चाहिए।kerala मुझे जब से अपने होने की याद है, तब से बिना ग़लती मैं ऐसा ही करती आ रही हूं। मैं कभी ‘ॐ जय जगदीश’ सुनकर नहीं खड़ी होती। मैंने कभी आरती के प्रति, ईश्वर की प्रार्थना के प्रति श्रद्धा नहीं दिखाई। लेकिन राष्ट्रगान, उसका सम्मान अलग बात थी। उससे मेरा रिश्ता था। इस देश के तिरंगे झंडे से मेरा रिश्ता था। ‘जन गण मन’ गाते हुए हर बार मुझे उसके शब्द महसूस होते थे, होते हैं, होते रहेंगे। मुझे कभी किसी सरकार, किसी पार्टी, किसी अदालत, किसी भीड़ ने ऐसा करने को नहीं कहा। ये मेरी अपनी मर्ज़ी थी। मेरा अपना प्यार था। मेरी अपनी भावना थी।
मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं। राष्ट्रवाद के विचार में, इसके चरित्र में मेरा रत्ती भर भी भरोसा नहीं। राष्ट्रगान के लिए खड़े होने और इससे प्यार करके भी मैंने कभी अपने अंदर राष्ट्रवाद का तिनका भर भी महसूस नहीं किया। मेरे लिए ‘जन गण मन’ ‘वंदे मातरम’ और तिरंगे का मतलब अलग है।
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आज़ादी की लड़ाई में हज़ारों लोग शामिल थे। कुछ एक को छोड़कर हम उन बाकी लोगों के नाम तक नहीं जानते। लेकिन हज़ारों लोग थे जिन्होंने हमारे आज के लिए अपना आज बलिदान किया, मैं सोचती हूं उनके बारे में और मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं। उस वक़्त तिरंगा नहीं था, कांग्रेस का झंडा था। उसी का इस्तेमाल होता था। बाद में जब देश आज़ाद हुआ, तो उस झंडे में कुछ बदलाव कर उसको राष्ट्रध्वज की पहचान दी गई। लोग हाथ में वही झंडा लेकर निकलते और अंग्रेज़ों की लाठी खाते। झंडे को अंग्रेज़ों के जूते तले रौंदे जाने से बचाने को वो अपने शरीर की ओट में झंडा छुपा लेते। सिर फूट जाता, डंडे की मार से शरीर टूट जाता, लेकिन उनकी ज़ुबां से ‘वंदे मातरम’ चिपका रहता। कितने लोग इन शब्दों के साथ मर गए। कितने लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत की इमारतों पर यूनियन जैक हटाकर भारत का झंडा लहराने की कोशिश में जान दे दी। हम उन सबका नाम कभी नहीं जान सकेंगे। हम उनके त्याग का बदला कभी किसी हाल में नहीं चुका सकते। तो मेरे लिए ये तिरंगा, हमारा राष्ट्रगान उन सब अनजान चेहरों को शुक्रिया कहने का तरीका है। सड़क पर गिरे तिरंगे को देखकर मेरा मन दुखी होता है। राष्ट्रगान सुनकर मेरा शरीर खड़े होकर सम्मान से तन जाता है।
मुझे राष्ट्रगान के ‘जन गण मन’ की भावना से प्यार है। मैं इसी ‘जन’ को ‘भारत भाग्य विधाता’ मानती हूं। जिस दौर में टैगोर ने यह गीत लिखा, तब भारत के सरहदों की, यहां तक कि भारत ‘Idea of India’ की कल्पना भी बहुत मुकम्मल नहीं थी। ऐसे में भी यह गीत ‘पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल, बंग, विंध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा’ को साथ गूंथकर उज्ज्वल भारत की कल्पना करता है। मुझे इस एकता की भावना से मुहब्बत है। ये इश्क़ थोपा नहीं जा सकता। ये जुड़ाव डंडे के जोर पर नहीं बनाया जा सकता। ये रिश्ता डराकर नहीं जोड़ा जा सकता। जब दो लोगों की जबरन शादी कराई जाती है, तो रिश्ते के टूटने की गारंटी 24 कैरट सोने जितनी खरी होती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान को अनिवार्य किया जाना, इसी किस्म की ज़बर्दस्ती है।
अदालत का काम है न्याय करना। अदालत का काम है दंगाइयों को पहचानना। उसका काम है अपने नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना। जनता को देशभक्ति का चाबुक मारना अदालत की जिम्मेदारी कब से हो गई? कानून भावना में कब से बहने लगा? कोर्ट संवेग में आकर निर्णय कैसे सुनाने लगा? और अगर देश की सबसे बड़ी अदालत ही ऐसी अधपकी और जज़्बाती बातें करेगी, तो हम राह दिखाने की उम्मीद किससे करेंगे? हम ग़लत को सही करने की आस किससे रखेंगे?
आप सिनेमा देखने क्यों जाते हैं? वहां क्या आप ख़ुद को देशभक्ति के मोटे रस्से से बांधने जाते हैं? सिनेमा और PT की क्लास में कुछ तो अंतर होता होगा? और सिनेमाहॉल में हर फ़िल्म से पहले राष्ट्रगान सुनाने की शर्त से हासिल क्या होगा? हाथ में पॉपकॉर्न और कोक थामकर सावधान की मुद्रा में राष्ट्रगान गाने से कौन सी देशभक्ति जग जाएगी? क्या ऐसा किए बिना लोगों की देशभक्ति मर जाएगी? इतने साल से तो यूं फिल्म चलने से पहले राष्ट्रगान नहीं बजा करता था, तो क्या आप तब देशभक्त नहीं थे? तब क्या आप देशद्रोही थे? कम देशभक्त थे? क्या अपनी देशभक्ति पर पक्का रंग चढ़ाने के लिए हमें कोई रंगरेज़ चाहिए? यूं सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान को अनिवार्य करना एक किस्म की फूहड़ता है।
आजकल हर बात के साथ देशभक्ति नत्थी होकर आती है। Whatsapp के उन बेहूदा ‘देखते ही फॉरवर्ड करें’ जैसे संदेशों में देशभक्ति, सिनेमा देखने से पहले राष्ट्रगान गाना देशभक्ति,  ATM और बैंक के बाहर घंटों कतार में लगना देशभक्ति, एक विशेष पार्टी का समर्थन करना देशभक्ति, सरकार की हर बात को बिना विरोध गटक जाना देशभक्ति, मुंह बंद रखना देशभक्ति, गोरक्षा देशभक्ति…हर बात कहीं से भी शुरू हो, रुकती देशभक्ति के ही दर पर है। ये देशभक्ति है कि 10 रुपये किलो बिकने वाला आलू? क्या आपको एहसास है कि हर बात को देशभक्ति से जोड़कर हम इस शब्द को कितना बाज़ारू और अश्लील बना रहे हैं?
उच्च शिक्षा के कई पाठ्यक्रमों में राष्ट्रवाद एक विषय की तरह पढ़ाया जाता है। काश आप सब राष्ट्रवाद को एक विषय की तरह पढ़ पाते, तो आप जान पाते कि राष्ट्रवाद एक सीमा तक मुल्क की ज़रूरत होता है। एक नए देश को बसने, जुड़ने और शुरू होने के लिए राष्ट्रवाद का ईंधन चाहिए होता है। 1947 में आज़ादी हासिल होने के बाद अब आपकी-हमारी पीढ़ी को ‘भारत, एक राष्ट्र’ की आदत हो गई है। हम जानते हैं कि भारत हमारा देश है। हम देश बनने और उस देश की पहचान से परिचित होने की मजबूरी से बहुत आगे आ गए हैं। अब देश के तौर पर हमारी ज़रूरतें अलग हैं। बच्चा जब पैदा होता है, तब की उसकी ज़रूरतें और उसकी परवरिश का तरीका अलग होता है। उसको मां के दूध की ज़रूरत होती है। 6 महीने का होने पर उसे दाल का पानी और बाकी चीजें खिलाना शुरू किया जाता है। उसे बताया जाता है कि उसकी मां कौन है, पिता कौन हैं, दादा-दादी और बाकी रिश्तेदारों से भी उसका परिचय कराया जाता है। फिर बच्चा बड़ा होता है, स्कूल से कॉलेज और फिर दफ़्तर पहुंच जाता है। उम्र के हर दौर में उसकी प्राथमिकताएं और ज़रूरतें अलग होती हैं। देश भी इसी बच्चे की तरह होता है। हमें आज़ाद हुए 70 साल हो रहे हैं। भारत अब वयस्क हो चुका है। उसे विकास की ज़रूरत है, सतही भावनाओं की नहीं। भारत को अपनी कमियों पर काम करने की ज़रूरत है, पैबंद लगाकर उन्हें छुपाने की नहीं। भारत को अपने लोगों की बेहतरी पर काम करने की ज़रुरत है, उन्हें राष्ट्रवाद का मीठा नशा देकर सुलाने की नहीं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान अनिवार्य किए जाने से मुझे बहुत निराशा हुई है। इस निराशा की अभिव्यक्ति मुझे भारी पड़ सकती है,suprem court लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं। मैं नहीं मानती कि कोई सरकार, कोई अदालत या कोई भीड़ इस मुल्क को मुझसे बढ़कर मुहब्बत कर सकते हैं। हो सकता है मेरे बराबर करें, लेकिन मुझसे बढ़कर कतई नहीं कर पाएंगे। कोई अदालत कोड़े लगाकर मुझे देशभक्ति की शिक्षा नहीं दे सकती। देशभक्त होने का अपना मापदंड मैं तय करूंगी, किसी और का पैमाना मेरी देशभक्ति तय नहीं कर सकता। और इसीलिए मैं सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय की निंदा करती हूं। मैं असहमत हूं अपने सुप्रीम कोर्ट से।
मैंने तय किया है कि 5 मिनट की देरी से सिनेमा हॉल के अंदर जाऊंगी। ऐसा नहीं कि वहां राष्ट्रगान के लिए खड़े होकर मेरे पैर टूट जाएंगे, लेकिन वहां खड़ी होकर मैं इस लिबलिबे-लिसलिसे से राष्ट्रवाद का हिस्सा नहीं बनना चाहती। ‘जन गण मन’ का सम्मान मैं ताउम्र करती रहूंगी, लेकिन सिनेमा हॉल में उसके लिए खड़ी नहीं होऊंगी। सिनेमा हॉल में इस तरह राष्ट्रगान की नुमाइश पर मुझे आपत्ति है। ये मेरे राष्ट्रगान का अपमान है। ये उस गीत की आत्मा का अपमान है। ये उस गीत को लिखने-पिरोने वाले टैगोर की भावनाओं का अपमान है। ये ‘जन’ का, ‘गण’ का और उस ‘मन’ का अपमान है जो कि भारत को तमाम अंधेरों, संकीर्णताओं और जहालतों से बाहर निकालने का वादा कर उजालों ‘जन गण मंगलदायक’ में ले जाना चाहता है। मैं एकबारगी अदालत की तौहीन तो कर सकती हूं, पर भारत के उस ख़ूबसूरत ख़याल का कभी अपमान नहीं कर सकती। ये देशभक्ति का मेरा संस्करण है।

यूपी हाथ से जा चुका है

वे खुद ही कह रहे कि यूपी हाथ से जा चुका है 

यूपी के चक्कर में आठ नवंबर से साठ बार पहलू बदल चुके साहेब के हाथ से यूपी जा चुका है और कम से कम इसका यह कारण बिल्कुल नहीं कि उन्होंने यह नहीं कहा कि वह बचपन से ही यूपी वाला बनना चाहते थे। कह देते तो जो रही-सही चालीस सीटें आने की उम्मीद है, वे भी हाथ से निकल जातीं क्योंकि यूपी वाला कहीं भी हो, कभी हाथ खड़ा करके यह नहीं कहता कि वह यूपी वाला है। बिहार वाला या बंगाल वाला हाथ खड़ा कर देगा, लेकिन यूपी वाला चुपके से चार लोगों के और पीछे ही जाकर खड़ा हो जाता है। खैर, यह तो मजाक है, बहरहाल, यूपी जा चुका है और यह मैं नहीं बल्कि बीजेपी के ही नेता कह रहे हैं। खुद गुजराती शाह साहब भी पहले ही अंदेशा सरसंघकार्रवाह के दफ्तर में जमा कर आए हैं। वैसे भी, यूपी का प्रधानमंत्री बन पाना गुजरात का प्रधानमंत्री बनने जितना आसान नहीं और भारत का प्रधानमंत्री बनने जितना तो बिल्कुल भी आसान नहीं।

बात साठ बार करवट बदलने और यूटर्न लेने की भी नहीं है। बात कालेधन की भी नहीं जिसकी हॉट सीट पर साहेब बार-बार यूपी को बैठाने की कुछ ऐसी कोशिश कर रहे हैं कि मानो सारा कालाधन यूपी में ही जमा है और वह सारे यूपी वाले जो नोटबंदी की मार सह रहे हैं, चोर हैं। बात सिंपल-सी इतनी है कि लोगों के हाथ में नोट नहीं है। डिजिटल का सपना यहां दिखाने की कोई भी कोशिश इसलिए पलट जाती है क्योंकि इंटरनेट ब्लैकआउट यूपी भी उसी तरह से झेल रहा है, जैसा कि बाकी का पूरा देश। कई बार इंटरनेट बैन भी। किसी को कालाधन नहीं जमा करना है, बस जो जमा है, वह निकालना है और वही नहीं हो पा रहा है। वैसे भी, लोगों के संवैधानिक अधिकार का हनन कोई भी करेगा, उसका नतीजा तो उसे भुगतना ही पड़ेगा। बैंक से अपना जमा धन निकालना हमारा संवैधानिक अधिकार है।

वैसे इन दिनों गांव-गांव में यह नारा सबसे ज्यादा लग रहा है कि नोट नहीं तो वोट नहीं। लोग अपनी कमाई ही नहीं ले पा रहे हैं। मंच से साहेब चाहे जितना कह लें कि वही चिल्ला रहे हैं, जिनके पास कालाधन है, लेकिन बात आंकड़ों की करें तो जितनी करंसी छापकर वापस ली थी, तकरीबन सारी वापस पहुंच गई है और जो कहीं दबा हुआ धन है भी, तो उसके लिए कोई नहीं चिल्ला रहा है। अगर कोई चिल्ला भी रहा है तो वह वही लोग हैं जो बैंकों और एटीएम की लाइन में लगे हैं। वैसे अपने शाह भाई ने यहां भी गुजराती मॉडल लागू करने की कोशिश की है और हर लाइन में एक डपटकर पीट देने वाला तैनात किया है, लेकिन असलियत यह है कि डपटने वाले भी लाइन में लगा गुस्सा देखकर डर चुके हैं।

संघ ने पहले ही इनके सिर से हाथ हटा लिया है तो जो अफवाहबाजी की रही-सही ताकत हाथ में थी, वह भी जाती रही। अब ले-देकर दो ही चीजें हाथ में बच रहीं हैं, पहली सोशल मीडिया पर गुंडागर्दी और दूसरी रैली में भीड़ प्रदर्शन। मुसीबत यह है कि इन दोनों चीजों के भेद लोगों के सामने बहुत साल पहले से ही खुल चुके हैं। सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया पर गाली देने के लिए लोग ठेके पर तो रखे ही जाते हैं, रैलियों में भीड़ भी ठेके पर ही आती है। रैली वाले कार्यक्रम में बस एक छोटा-सा बदलाव हुआ है। मुरादाबाद वाली रैली में जो रुपए बांटने थे, वह बीजेपी वाले के पास पकड़े गए तो इस बार कानपुर में बाकायदा उर्जित पटेल से पैसे बंटवाए गए। इन सारी बातों को देखते हुए चार पांच साल पहले एक मित्र की एक बात याद आती है कि बीजेपी जब आती है तो कई जगहों पर न आने के लिए आती है।

रविवार, 18 दिसंबर 2016

जीवन सचमुच विचित्र है

हमारा जीवन घट और चलनी जैसा होता है। इसमें श्रेष्ठताओं की पूर्णता है, तो बुराइयों के अनगिनत छिद्र भी। समंदर-सा गहरापन भी है। सब कुछ अनुकूल-प्रतिकूल अनुभवों को समेट लेने की क्षमता है, तो सहने का अभाव होने से बहुत जल्द प्रकट होने वाला छिछलापन भी है। तूफानों से लड़कर मंजिल तक पहुंचने का आत्मविश्वास है, तो तूफान के डर से नाव की लंगर खोलने जितना साहस भी नहीं है। ऐसे ही लोगों के लिए फ्रेडरिक लैंगब्रिज ने कहा कि दो व्यक्तियों ने एक ही सलाखों से बाहर झांका, एक को कीचड़ दिखाई देता है, तो दूसरे को तारे दिखाई देते हैं।’
जीवन सचमुच विचित्र है। कभी हम जिंदगी जीते हैं, तो कभी उसे ढोते हैं। कभी हम दुख में भी सुख ढूंढ़ लाते हैं, तो कभी प्राप्त सुख को भी दुख मान बैठते हैं। कभी अतीत और भविष्य से बंधकर वर्तमान को निर्माण की बुनियाद बनाते हैं, तो कभी अतीत और भविष्य में खोये रहकर वर्तमान को भी गंवा देते हैं। एडवर्ड बी बटलर ने उत्साह का संचार करते हुए कहा है कि एक व्यक्ति 30 मिनट के लिए उत्साही होता है, दूसरा 30 दिनों के लिए, लेकिन ऐसा व्यक्ति, जो कि 30 वर्षों तक उत्साही रहता है, उसे ही जीवन में सफलता प्राप्त होती है।’ कुछ लोगों का जीवन ऐसा होता है, जिसमें गंभीरता का पूर्ण अभाव होता है। वे बड़ी बातों को सामान्य समझकर उस पर चिंतन-मनन नहीं करते, तो कभी छोटी-सी बात पर प्याज के छिलके उतारने बैठ जाते हैं। इसीलिए एचएम टॉमलिसन ने कहा कि दुनिया वैसी ही है, जैसे हम इसके बारे में सोचते हैं। अपने विचारों को बदल सकें, तो हम दुनिया को बदल सकते हैं।

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

खुद से बात

खुद से बात
यूं बॉस से मुलाकात थोड़ी ही देर के लिए होती है, लेकिन उनके भीतर बॉस से बातचीत चल रही होती है। उन्होंने महसूस किया कि वह अकेले में भी किसी न किसी से बात करते रहते हैं। बस अपने से ही बात नहीं हो पाती।
‘अपने से बात करिए न! और ऐसे बात करिए, जैसे आप अपने बेहतरीन दोस्त से करते हों।’ यह कहना है डॉ. इसाडोरा अलमान का। वह मशहूर साइकोथिरेपिस्ट हैं। मानवीय रिश्तों पर कमाल का काम किया है। उनकी चर्चित किताब है, ब्लूबड्र्स ऑफ इम्पॉसिबल पैराडाइजेज। हम सब अपने से बात करते हैं। यह अलग बात है कि हमें पता ही नहीं चलता। अनजाने में जो बात हो रही होती है, वह किसी न किसी से बात का हिस्सा होती है। हम अक्सर दूसरे से बात कर रहे होते हैं। कभी किसी से सवाल कर रहे होते हैं। कभी किसी को जवाब दे रहे होते हैं। हम बात अपने से कर रहे होते हैं, लेकिन उसमें शामिल कोई दूसरा ही होता है।

असल में, हम जब अपने से बात करें, तो कोई दूसरा उसमें नहीं होना चाहिए। हम अकेले हों, तो सिर्फ अपने से बतियाएं। अपना ही हालचाल पूछें। अपने ही दिल की सुनें। हम अक्सर दूसरों की ही सुनते रहते हैं। या सुनाते रहते हैं। हम अपने को ही नहीं सुन पाते। हम जब अपना ख्याल करते हैं, तो अपना राग-रंग भी सुनते हैं। अपनी बात कहते-सुनते हैं, तो जिंदगी बदलने लगती है। हम जब अपने से बात करते हैं, तो कुछ अपना ही दबा-छिपा बाहर आता है। अपने से बात तो कीजिए, उससे कुछ बेहतर निकल सकता है। हमारी कोई अनसुलझी गुत्थी उससे सुलझ सकती है।