बुधवार, 21 दिसंबर 2016

चार्वाकों के बीच

चार्वाकों के बीच 'महान आप्त पुरुष' का अवतार
कुछ लोगों को गर्व है कि भारतीय समाज ने कभी भी चार्वाक दर्शन को नहीं अपनाया, लेकिन उन्हें चिंता है कि वर्तमान में चार्वाकों की संख्या बढ़ती जा रही है। वैसे भी सुना है कि एक गहन शोध के बाद तय किया गया है कि देश के नागरिकों में देशभक्ति की भावना का ह्रास होता जा रहा है, लिहाजा इसे मजबूत किया जा रहा है। ऐसे में मैं भी इसमें अपना योगदान देते हुए यह स्वीकार कर लेता हूँ कि, हमारा देश कभी जगद्गुरु हुआ करता था, कम से कम दर्शन के क्षेत्र में तो यह वाकई समृद्ध था ही। वेदांत, मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक जैसी शाखाओं ने भारतीय दर्शन को बहुत व्यापक बना दिया।
भारतीय दर्शन के मुख्यतः दो आधार हैं, वेद विरोधी दर्शन (इसमें बौद्ध, जैन और चार्वाक आते हैं) और दूसरा  वेदानुकूल दर्शन (इसमें वेदांत, मीमांसा, योग इत्यादि को रखा जा सकता है)। दर्शन चूँकि ज्ञान की विवेचना करता है और इसके जरिये ही तथ्यों को संश्लेषित कर उन्हें स्थापित करता है, लिहाजा भारतीय दर्शन भी ज्ञान के दो मुख्य स्रोतों पर ही टिका है, प्रत्यक्ष अनुभव और दूसरा अनुमान। भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में बात करें तो कहा जा सकता है कि वेदानुकूल दर्शन अनुमान आधारित हैं जबकि चार्वाक जैसे वेद विरोधी दर्शन प्रत्यक्षानुभव आधारित। वेद विरोधी दर्शनों में चार्वाक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, हालाँकि बौद्ध और जैन मत भी काफी व्यापक हैं, लेकिन कहीं न कहीं इनकी प्रेरणा का आधार भी चार्वाक दर्शन ही है और आगे चलकर बौद्ध और जैन भी वेदों की तरह आस्तिकता को स्वीकार कर लेते हैं।
चार्वाक दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है कि प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, इसके अलावा सभी अनुमान संदिग्ध हैं। यह दर्शन कहता है कि चूँकि मृत्यु के बाद कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता है, मृत्यु के बाद कर्मों के फल की चिंता करना, स्वर्ग की कामना करना व्यर्थ है। स्वर्ग-नरक, ईश्वर-आत्मा आदि सब पुरोहितों के ढकोसले हैं, जिसे उन्होंने अपनी जीविका चलाने के उद्देश्य से गढ़ लिया है। दुःख से मुक्ति मृत्यु के बाद ही मिल सकती है, इसे पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सकता है लेकिन कम जरूर किया जा सकता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य स्वर्ग प्राप्त करना नहीं बल्कि सुख प्राप्त करना है और स्वर्ग की कामना भी इसी का प्रमाण है। लिहाजा जीवित रहते हुए ही सुख प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए। कल की आस में आज को बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। कल मोर मिलेगा इस आशा में हाथ में आया कबूतर छोड़ना मूर्खता है। संदिग्ध सोने की मुहर से प्रत्यक्ष कौड़ी अधिक उपयोगी और मूल्यवान है।
वहीं अनुमान आधारित दर्शन की शाखाओं का मुख्य रूप से मत है कि मोक्ष प्राप्ति, ईश्वर अनुभूति, आदि सभी बेहद कठिन हैं, इसलिए सभी को इनका प्रत्यक्षानुभव हो पाना असंभव है। ऐसे में लोगों को सत्य के लिए आप्त (सिद्ध) पुरुषों की बातों पर यकीन करना चाहिए। उनके अनुमानों को सत्य मानना चाहिए। लेकिन यहाँ आप्त पुरुष का निर्धारण एक बड़ी समस्या है।
modiवर्तमान सन्दर्भ में देखें तो यह कुछ वैसा ही है जैसे एक महान आप्त पुरुष, जिसके आप्त वचन प्रमाण की आवश्यकता से परे हैं, उसका अनुमान है कि 50 दिन बाद देश के नागरिकों को स्वर्ग मिल जाएगा। ऐसे में हमें तमाम तथ्यों की अनदेखी करते हुए, ‘आज’ को नरक बनाना पड़े तब भी इस अनुमान पर भरोसा कर लेना चाहिए। वैसे आप यह सवाल कर सकते हैं कि भला वह आप्त पुरुष कैसे हो गया, तो जवाब दो हैं। पहला तो यह कि सवाल और संशय चार्वाक दर्शन के आधार हैं अनुमान आधारित दर्शन के नहीं, और दूसरा यह कि वह आप्त पुरुष है क्योंकि उसने स्वयं दावा किया है।
बहरहाल, यह बिल्कुल सच है कि सभी को सभी चीजों का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो सकता है, लेकिन ज़रा एक ऐसी स्थिति पर गौर कीजिए, जिसमें वर्ण विशेष की श्रेष्ठता और नीचता चरम पर है। आप्तता का एकमात्र प्रमाण यह है कि वह वर्ण विशेष से सम्बन्ध रखता है। आडम्बर, कर्मकांड, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक जैसे विश्वासों के बोझ तले समाज दबा हुआ है। लोग इसलिए किसी की मदद नहीं करते कि मदद किये जाने की जरूरत है, बल्कि इसलिए करते हैं ताकि उन्हें पुण्य मिल सके और मरने के बाद इस पुण्य से भरी अंटी के बदले स्वर्ग में एक सीट। शासक और शोषक का पूरा प्रयास और चिंतन-मनन शोषित को जस का तस बनाये रखने का है। राजनितिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय तो दूर प्राकृतिक न्याय का दायरा भी कथित आप्त पुरुषों के हिसाब से तय होता हो। स्वतंत्र और वैज्ञानिक चिंतन की धज्जियाँ उड़ गई हों। ऐसी ही परिस्थितियों की प्रतिक्रियास्वरूप चार्वाक दर्शन एक चुनौती के तौर पर सामने आता है। तत्कालीन वैदिक दर्शन के बीच संशयवाद की शुरुआत करता है। मूलभूत विज्ञान की अवधारणा की तरह किसी तथ्य की सत्यता को परखने के लिए विवेक के इस्तेमाल की बात करता है और प्रत्यक्ष प्रमाण की मांग करता है। दिलचस्प बात यह है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में चार्वाक दर्शन का स्वतंत्र संकलन कहीं नहीं मिलता है, बल्कि कुछ जगहों पर यह जरूर कहा गया है कि इस दर्शन के प्रवर्तक देवताओं के गुरु स्वयं बृहस्पति हैं, जिन्होंने दानवों के बीच इसका इसलिए प्रचार-प्रसार किया ताकि इसे मानने से उनका विनाश खुद-ब-खुद हो जाए। वैसे दानवों का विनाश तो नहीं हुआ, लेकिन दुष्प्रचार के चलते जनसाधारण में चार्वाक दर्शन ‘यावज्जिवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत’ तक सिमट कर रह गया और एक बार फिर से लोगों ने अपनी-अपनी अंटी भरनी शुरू कर दी।modi चूँकि ‘सवाल’ तो शोषण की कुर्सी का दीमक है, लिहाजा उस पर बैठने वाले कथित आप्त पुरुषों के लिए निश्चित तौर पर इस दर्शन का अप्रसार गर्व की बात रही।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि चार्वाक दर्शन पूरी तरह से त्रुटिहीन हो, लेकिन यह भी दिलचस्प है कि माधवाचार्य जैसे वेदानुकूल दर्शन के विद्वानविरोधी होने के बावजूद चार्वाक दर्शन की अहमियत को स्वीकार करते हैं, बल्कि वह भारतीय दर्शन के क्षेत्र में संशयवाद और उसके जरिये उसे और परिष्कृत करने का भी श्रेय देते हैं। वैसे ये दीगर बात है कि वर्तमान के महान आप्त पुरुष विपक्ष के योगदान को सिरे से खारिज करते हुए पिछले 70 सालों के इतिहास को कूड़ा करार दे देते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें