बुधवार, 21 दिसंबर 2016

हमें स्वाभिमान की चिंता नहीं, तो शासक क्यों फिक्र करें!

हमें स्वाभिमान की चिंता नहीं, तो शासक क्यों फिक्र करें!
आकार के हिसाब से देखें तो भारत का एक तिहाई भी नहीं है वेनेजुएला। आबादी के लिहाज से तो बिल्कुल पिद्दी। जहां भारत में सवा सौ करोड़ लोग रहते हैं वहीं वेनेजुएला में सवा तीन करोड़ भी नहीं रहते। बावजूद इसके, वहां की सरकार ने जब पिछले हफ्ते भारत की ही तरह अचानक नोटबंदी का ऐलान कर दिया तो आम लोग सन्न रह गए। लेकिन भारतवासियों की तरह वे हाथ बांधे सिर झुकाए खड़े नहीं रहे। उन्होंने इस फैसले को गलत बताते हुए इसके खिलाफ सड़कों पर विरोध शुरू कर दिया। इन्हीं सब विरोध प्रदर्शनों के बीच सरकार के इस फैसले के परिणामस्वरूप एक नागरिक की मौत हो गई और फिर दबाव इतना बढ़ा कि सरकार अपना यह फैसला स्थगित करने को मजबर हुई। सिर्फ एक मौत… और फैसला स्थगित।
इसके बरक्स देखें भारत में क्या सीन है! अव्वल तो भाई लोग यह मानने को ही तैयार नहीं कि किसी को कोई तकलीफ भी है। पूरा देश कतार में खड़ा अपने ही कमाए एक-एक पैसे के लिए रिरिया रहा है और प्रधानमंत्री जगह-जगह घूम-घूम कर दावा कर रहे हैं कि सरकार के इस फैसले से तकलीफ केवल उन्हें है जिनके पास अथाह काला धन है और जो भ्रष्ट हैं। प्रकारांतर से यह देश की मेहनतकश आबादी को गाली थी। पर किसी का खून नहीं खौला। सब सिर झुकाए मोदी सरकार की दी हुई देशभक्ति की नई-नई कसौटियों पर खुद को पास कराने की कोशिश में लगे रहे। अब तक सौ से ज्यादा नागरिक सरकार की इस सनक की बलि चढ़ चुके हैं, लेकिन सत्ता पक्ष के नेता हमें देशभक्ति और ईमानदारी का डोज दिए जा रहे हैं।
यह अकारण नहीं है। मूल सवाल हमारी नागरिक चेतना का है। धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर ही नहीं, हम पार्टियों के आधार पर भी बुरी तरह बंटे हुए हैं। इस वजह से हम यह नहीं देख पाते कि बतौर नागरिक कोई सरकार या पार्टी हमारे हितों पर किस-किस तरह से चोटें करती जा रही है। कभी हम खास सरकार और पार्टी को लेकर अति अपनेपन के भाव से ग्रस्त रहते हैं तो कभी जनता के पीड़ित हिस्से के धर्म, जाति, भाषा, प्रांत आदि के आधार पर उसके प्रति अलगाव के भाव से बंधे होते हैं। नतीजतन, बतौर नागरिक हम हमले झेलते रहते हैं और ढंग से उन्हें संज्ञान में भी नहीं ले पाते। कभी वोट देने के हमारे अधिकार को कर्तव्य में बदलते हुए उसे दंडात्मक बना दिया जाता है, कभी राष्ट्रगान को अनिवार्य करते हुए उसका खास तरीके से सम्मान करने पर मजबूर किया जाता है और कभी गैर सरकारी उपायों से हमारे रहने-सहने, खाने-पीने,  प्रेम और दोस्ती करने के तौर-तरीकों पर पाबंदियां लगाई जाती हैं।
हमें समझना होगा कि यह मामला सिर्फ शासकों की संवेदनशीलता का नहीं, नागरिक समाज की जागरूकता का भी है। शासकों की सनक को चुपचाप सहन करने वाला पालतू समाज यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि शासक उसकी जरूरत, चिंता और स्वाभिमान की परवाह करेगा

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