शनिवार, 17 दिसंबर 2016

पुराने दौर में घड़ियां

जाने कितने महीनों बाद घड़ी को हाथ में बांधा। मोबाइल ने तो घड़ियों का काम ही तमाम कर दिया लगता है। पुराने दौर में घड़ियां अगली पीढ़ियों तक चलती रहती थीं। कभी-कभी तो लालच भी मिलता था कि इस बार बढ़िया पढ़ोगे तो घड़ी इनाम में मिलेगी। और मिलती भी थी। ‘आपको क्या लगता है कि घड़ियों को सुधारने के धंधे में अब उतना जोर नहीं रहा?’ इतना कहना था कि उसने कहा- ‘नहीं साहब, मुझे तो बहुत काम मिलता है। देखो, सुबह से रात तक खड़े-खड़े ही निकल जाता है। इस पूरे बाजार में मेरा नाम चलता है। सबसे पुराना घड़ीसाज हूं यहां का।’ उसकी दुकान में बहुत सारी पुरानी और नई घड़ियां शो-केस में रखी थीं। दीवार पर भी ढेर सारी दीवार-घड़ियां टंगी हुई थीं। बची हुई खुली घड़ियों और उनके बीच की खाली जगह में धूल यह बयान कर रही थी कि अनेक रोजगार की तरह बहुत से काम खत्म हो रहे हैं। घड़ीसाज भी अब बहुत ही कम बचे हैं। दरअसल, हुआ यों कि छुट्टी का उपयोग करके वक्त को घर के कई दिनों से रुके हुए कामों में लगाया। तो बच्चों और अपनी घड़ियों को लेकर घड़ी की दुकान पर पहुंचा और दुकानदार से कहा- ‘आज मैं घर की सारी घड़ियां निकाल कर लाया हूं।’ घड़ीसाज की दुकान के पास ही एक टीवी सुधारने की दुकान है। वहां पर भी कई पुराने सीआरटी टीवी धूल खा रहे हैं और उस दुकान के मालिक की हालत भी वैसी ही है। दौर बदल रहा है। आजकल इस्तेमाल करो और फेंको के जमाने में रेडियो, टेपरिकार्डर देखने को भी कम मिलते हैं।
हमारे घड़ीसाज ने कहा कि थोड़ी देर रुकें, कोशिश होगी कि अभी ही चारों घड़ियों को ठीक कर दूं। इस बीच रमेश भाई याद आए। तब मैं आठवीं-नौवीं में था और वे अपनी पढ़ाई पूरी करके, नहीं… शायद अधूरी छोड़ कर घड़ियों को सुधारने का काम करने लगे थे। परिवार बड़ा था, कमाई सीमित। नियमित कमाने वाले सिर्फ उनके पिताजी थे। जब भी उससे आगे पढ़ाई कि बात करता तो उनकी बड़ी-बड़ी आंखें छलक जाती थीं। वे शायद आंसू ही रहते थे, लेकिन वे कहते थे कि इतना बारीक काम करने से उनकी आंखों से पानी झरने लगता था। उनके पास जब भी जाता था तो कोई न कोई घड़ी वे खोल कर बैठे मिलते। छोटे गिलास की शक्ल का एक लेंस होता था जो घड़ी के बारीक पार्ट को देखने के काम आता था। मुझे लगता था कि वे मुझे भी यह काम सिखा दें तो मैं भी इसी तरह लेंस लगा कर काम करूंगा। कोई भी घड़ी खोल कर देखते ही वे बता देते थे कि यह घड़ी ठीक होगी कि नहीं। वे इसलिए भी प्रभावित करते थे कि वे घड़ियों को तो सुधारते ही थे, साथ ही एक काम और करते थे। पास के ही छोटे डाकघर की डाक को बांध कर बड़े डाकघर में जमा कराना होता था और वहां से डाक लेने का भी काम था। हालांकि न तो वे डाक विभाग के कर्मचारी थे, न वहां पूरे समय रहते थे। उन दिनों डाक घरों में डाक को लाख से सील किया जाता था तो यह सील करने का तरीका भी मुझे बहुत ही आकर्षक लगता था।
वक्त बीतता गया। मैं अपनी पढ़ाई में उलझ गया। शहर से बाहर गया। वापस आया तब तक रमेश भाई का कोई अता-पता नहीं था। लोग कहते थे कि उनके पिताजी रिटायर हो गए और तमिलनाडु के अपने गांव चले गए। उन दिनों फेसबुक वगैरह नहीं था। खैर-खबर एक दूसरे से मिल कर और चिट्ठियों के बहाने ली जाती थी। डाक घर गया तो वहां भी उन्हें जानने वाला कोई नहीं मिला।घड़ी वाले बड़े उस्ताद की दुकान पर पहुंचा तो वह दुकान तोड़ कर कुछ शोरूम बन गए थे। बड़े उस्ताद के बारे में किसी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। आखिर उसने कहा- ‘आपकी तीन घड़ियां ठीक हो गई हैं। एक कल मिल सकेगी।’ मैंने कहा कि ठीक है, कितने पैसे हुए तो उसने दो सौ तीस रुपए बतए। साथ खड़ी मेरी पत्नी ने कहा कि कुछ कम करने के लिए कहो। इतनी घड़ियां ठीक करवाई हैं। मेरा मन उस घड़ीसाज में रमेश भाई को देख रहा था… उनके उस्ताद को देख रहा था! खत्म होते जा रहे पुराने रोजगारों को देख रहा था। अपने उस दौर के सपने को देख रहा था, जब मैं ग्लासनुमा लेंस लगा कर अच्छा घड़ीसाज बना! खैर, घड़ीसाज ने जितने पैसे मांगे, उतने देकर चला आया। चार घड़ियों को ठीक करने और रमेश भाई के साथ बिताई तमाम घड़ियों को याद दिलाने के लिए पैसों के कोई मायने नहीं रह गए थे।

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