बुधवार, 21 दिसंबर 2016

यूपी हाथ से जा चुका है

वे खुद ही कह रहे कि यूपी हाथ से जा चुका है 

यूपी के चक्कर में आठ नवंबर से साठ बार पहलू बदल चुके साहेब के हाथ से यूपी जा चुका है और कम से कम इसका यह कारण बिल्कुल नहीं कि उन्होंने यह नहीं कहा कि वह बचपन से ही यूपी वाला बनना चाहते थे। कह देते तो जो रही-सही चालीस सीटें आने की उम्मीद है, वे भी हाथ से निकल जातीं क्योंकि यूपी वाला कहीं भी हो, कभी हाथ खड़ा करके यह नहीं कहता कि वह यूपी वाला है। बिहार वाला या बंगाल वाला हाथ खड़ा कर देगा, लेकिन यूपी वाला चुपके से चार लोगों के और पीछे ही जाकर खड़ा हो जाता है। खैर, यह तो मजाक है, बहरहाल, यूपी जा चुका है और यह मैं नहीं बल्कि बीजेपी के ही नेता कह रहे हैं। खुद गुजराती शाह साहब भी पहले ही अंदेशा सरसंघकार्रवाह के दफ्तर में जमा कर आए हैं। वैसे भी, यूपी का प्रधानमंत्री बन पाना गुजरात का प्रधानमंत्री बनने जितना आसान नहीं और भारत का प्रधानमंत्री बनने जितना तो बिल्कुल भी आसान नहीं।

बात साठ बार करवट बदलने और यूटर्न लेने की भी नहीं है। बात कालेधन की भी नहीं जिसकी हॉट सीट पर साहेब बार-बार यूपी को बैठाने की कुछ ऐसी कोशिश कर रहे हैं कि मानो सारा कालाधन यूपी में ही जमा है और वह सारे यूपी वाले जो नोटबंदी की मार सह रहे हैं, चोर हैं। बात सिंपल-सी इतनी है कि लोगों के हाथ में नोट नहीं है। डिजिटल का सपना यहां दिखाने की कोई भी कोशिश इसलिए पलट जाती है क्योंकि इंटरनेट ब्लैकआउट यूपी भी उसी तरह से झेल रहा है, जैसा कि बाकी का पूरा देश। कई बार इंटरनेट बैन भी। किसी को कालाधन नहीं जमा करना है, बस जो जमा है, वह निकालना है और वही नहीं हो पा रहा है। वैसे भी, लोगों के संवैधानिक अधिकार का हनन कोई भी करेगा, उसका नतीजा तो उसे भुगतना ही पड़ेगा। बैंक से अपना जमा धन निकालना हमारा संवैधानिक अधिकार है।

वैसे इन दिनों गांव-गांव में यह नारा सबसे ज्यादा लग रहा है कि नोट नहीं तो वोट नहीं। लोग अपनी कमाई ही नहीं ले पा रहे हैं। मंच से साहेब चाहे जितना कह लें कि वही चिल्ला रहे हैं, जिनके पास कालाधन है, लेकिन बात आंकड़ों की करें तो जितनी करंसी छापकर वापस ली थी, तकरीबन सारी वापस पहुंच गई है और जो कहीं दबा हुआ धन है भी, तो उसके लिए कोई नहीं चिल्ला रहा है। अगर कोई चिल्ला भी रहा है तो वह वही लोग हैं जो बैंकों और एटीएम की लाइन में लगे हैं। वैसे अपने शाह भाई ने यहां भी गुजराती मॉडल लागू करने की कोशिश की है और हर लाइन में एक डपटकर पीट देने वाला तैनात किया है, लेकिन असलियत यह है कि डपटने वाले भी लाइन में लगा गुस्सा देखकर डर चुके हैं।

संघ ने पहले ही इनके सिर से हाथ हटा लिया है तो जो अफवाहबाजी की रही-सही ताकत हाथ में थी, वह भी जाती रही। अब ले-देकर दो ही चीजें हाथ में बच रहीं हैं, पहली सोशल मीडिया पर गुंडागर्दी और दूसरी रैली में भीड़ प्रदर्शन। मुसीबत यह है कि इन दोनों चीजों के भेद लोगों के सामने बहुत साल पहले से ही खुल चुके हैं। सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया पर गाली देने के लिए लोग ठेके पर तो रखे ही जाते हैं, रैलियों में भीड़ भी ठेके पर ही आती है। रैली वाले कार्यक्रम में बस एक छोटा-सा बदलाव हुआ है। मुरादाबाद वाली रैली में जो रुपए बांटने थे, वह बीजेपी वाले के पास पकड़े गए तो इस बार कानपुर में बाकायदा उर्जित पटेल से पैसे बंटवाए गए। इन सारी बातों को देखते हुए चार पांच साल पहले एक मित्र की एक बात याद आती है कि बीजेपी जब आती है तो कई जगहों पर न आने के लिए आती है।

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