शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

धन और समाज

धन और समाज
आजकल हमारे देश में नोटों को लेकर काफी उथल.पुथल चल रही है। जेब में पैसे हैंए जिनकी कोई कीमत नहीं है। कागज के नोट होंए चाहे सोना.चांदी हो या जमीन.जायदाद हमें इनको इकट्ठा करने का बड़ा शौक है। लोग इसी से प्रसन्न होते हैं कि हमारे नाम पर इतना अंबार है। उसका उपयोग करने का ख्याल उन्हें नहीं आता। लेकिन दुनिया के कई देशों में आप जाएं तो वहां संग्रह का इतना पागलपन दिखाई नहीं देता। आखिर धन के बारे में हमारा रवैया इतना अनैसर्गिक क्यों है एक तरफ आध्यात्मिकता की ऊंचाई और दूसरी तरफ धन की इतनी पकड़!

ओशो ने भारतीय मानस के कुछ मार्मिक सूत्र बताए हैं उनको समझना जरूरी है। एकए हमारे धर्मों ने समझाया है कि धन व्यर्थ है मिट्टी है। इससे धन की आकांक्षा तो नहीं छूटीए बल्कि उसके प्रति एक गलत रवैया पैदा हो गया। पूरा देश धन के लिए बीमार हो गया। जिनके पास धन नहीं हैए वे धन के न होने से पीड़ित हैं और जिनके पास धन हैए वे धन के होने से पीड़ित हैं। जिस समाज में धन को इकट्ठा करने वाले लोग पैदा हो जाते हैंए उस समाज की जिंदगी रुग्ण हो जाती है। धन को भोगने वाले लोग चाहिए जो धन को खर्च करते हों जो धन को फैलाते हों। लेकिन अपने यहां आदमी धन इसलिए कमाता है कि उसे तिजोरी में बंद करे। जितना धन तिजोरी में बंद होता है उतना धन समाज के लिए व्यर्थ हो जाता है। धन समाज की रगों में दौड़ता हुआ खून है। यह जितनी तेजी से दौड़ेगा उतना ही उस समाज का आदमी जवान होगा। जहां.जहां खून रुक जाएगा वहीं.वहीं बुढ़ापा शुरू हो जाएगा। यही हालत भारतीय समाज की हो गई है।

पैसे को लेकर एक असुरक्षा.बोध है हमारे लोगों के मन में कि न जाने कल होगा इसलिए आज खर्च मत करो। जबकि पैसा एक ऊर्जा है और इस ऊर्जा को बहते रहना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें