शनिवार, 17 दिसंबर 2016

अपेक्षा का बोझ

अपेक्षा का बोझ
काफी अरसे बाद एक मित्र के घर गई तो उनसे बहुत सारी बातें हुई। बातचीत के दौरान ही उसकी छोटी बेटी भी वहां आ गई। मैंने उसका नाम पूछा। उसने चहकते हुए अपना नाम बताया- ‘पूर्वी’। इसके बाद मेरी मित्र ने एक बड़े अंग्रेजी माध्यम के स्कूल का नाम गर्व से लेते हुए कहा कि पूर्वी वहां पर पढ़ती है। मैंने भी इस बात पर खुशी जाहिर की। दरअसल, उस स्कूल में दाखिला लेना एक टेढ़ी खीर है। मैंने पूर्वी से प्यार से पूछा कि बताओ पूर्वी का मतलब क्या होता है! बच्ची ने कुछ देर तक इस बारे में सोचा और फिर कुछ कहने ही वाली थी कि इतने में उसकी मां ने बीच में ही कहा कि अरे बेटा, वह वाली कविता सुनाओ। वह तुम अच्छी सुनाती हो। बच्ची थोड़ी देर बिना किसी प्रतिक्रिया के वहां खड़ी रही । इस दौरान उसकी मां ने फिर से अपनी बात दोहराई की जल्दी सुनाओ… तुम अच्छी बच्ची हो न! बच्ची तुनक कर वहां से चली गई, यह कहते हुए कि मुझे नहीं सुनाना।
इस पर मेरी मित्र बच्ची से काफी नाराज हो गर्इं। कहने लगीं कि पता नहीं, ऐसा क्यों है… आजकल के बच्चे बोलते ही नहीं हैं। यों तो बहुत बोलती है, मगर जब कुछ सुनाने को बोलो तो पता नहीं, इसको क्या हो जाता है। उस दिन की बात के बाद मेरे मन में कई सारे सवाल उठने शुरू हो गए। दरअसल, इस तरह के उदाहरण हमें अक्सर ही घर-परिवार आस-पड़ोस में देखने-सुनने को मिलते रहते हैं। बड़ी उम्र के लोग अक्सर बच्चों से अपने अनुरूप ही व्यवहार करने की अपेक्षा रखते है। मसलन, ये करो, ये मत करो, वहां मत जाओ, यहां मत खेलो, धीरे बोलो, ज्यादा उछल-कूद नहीं करो..! पता नहीं हमलोग चाहते क्या हैं! कभी-कभी लगता है कि हम बच्चों से उनका बचपन ही छीन रहे है और बड़ों से अपेक्षा करते हैं कि वे अपने अंदर के बच्चे को मरने न दें। यह एक मुश्किल चुनौती है।
आमतौर पर हमारे घरों में सभी कामों के लिए स्थान तय होता है। जैसे बैठक कक्ष, रसोईघर, शयनकक्ष आदि। मगर बच्चों के लिए कोई खास जगह नहीं होती है। यह बात घर की परिधि से निकल कर स्कूल तक भी जाती है। लेकिन बच्चों को अपनी बात रखने की जगह न तो स्कूल में मिलती है और न घर में। ज्यादातर माता-पिता के पास घर में इतना समय नहीं होता कि वे उनकी बात को शांति से सुन सकें और यह समझ सकें कि बच्चा यह बात क्यों कह रहा है। जो बातचीत होती भी है तो सिर्फ निर्देश देने वाली। मसलन, जल्दी उठ जाओ, नाश्ता कर लो, ये काम जल्दी कर लो तो टॉफी देंगे, होमवर्क कर लो और अब सो जाओ! सब पहले से तय है।स्कूली पाठयक्रम और शिक्षण विधियां भी बच्चों को इसकी जगह दे पाने में विफल हैं। अगर कोई बच्चा स्कूल में प्रश्न पूछता है तो वह कमजोर समझा जाता है। दूसरी ओर, घर पर अच्छे बच्चे मां-पिता से ज्यादा सवाल-जबाव नहीं करते हैं। अगर ज्यादा कुछ पूछ लिया तो फिर वह ‘आज्ञाकारी’ बच्चा नहीं रहा। स्कूल में तो अनुशासन के नाम पर बच्चों के मुंह पर अंगुली रखने को कहा जाता है। सामान्यतया प्रश्न पूछना दोनों जगहों पर ही अच्छा नहीं समझा जाता। स्कूल में तो बच्चों को यह मान कर ही कुछ सिखाने की कोशिश की जाती है कि उसको पहले से कुछ नहीं आता है। जहां तक मेरा अनुभव कहता है, बच्चों को अपनी बात कहने की जगह कोई कहानी सुनाने के बाद ही होती है कि इस कहानी से क्या शिक्षा मिली। मगर यहां पर भी अपेक्षित उत्तर पहले से ही तय होते हैं।
बच्चा क्या सोचता है, वह क्या चाहता है, वह क्या करना चाहता है, इसका ध्यान रखना किसी को जरूरी नहीं लगता है। शायद इसलिए कि हमें यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं लगती है। सवाल है कि ऐसे में बच्चे क्या करें! कुछ माता-पिता को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि हमारा बच्चा तो ऐसा करता है, मगर फलां बच्चा तो वैसा करता है! हम हर समय उसकी तुलना दूसरों से करते रहते हैं। बच्चों की इस तरह से अन्य बच्चों से तुलना उनके सहज विकास और जिज्ञासा को पल्लवित और पुष्पित होने से रोकती है। क्या यह संभव नहीं कि हम बच्चों को बच्चों की तरह देखें। उनकी बालसुलभ चेष्टाओं पर समय से पहले वयस्क होना न थोपें! हम उन्हें एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप देखें तो शायद उनको अपनी सहज संभावनाओं और क्षमताओं के साथ बढ़ने में मदद मिल सकती है।

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