बुधवार, 21 दिसंबर 2016

हमें स्वाभिमान की चिंता नहीं, तो शासक क्यों फिक्र करें!

हमें स्वाभिमान की चिंता नहीं, तो शासक क्यों फिक्र करें!
आकार के हिसाब से देखें तो भारत का एक तिहाई भी नहीं है वेनेजुएला। आबादी के लिहाज से तो बिल्कुल पिद्दी। जहां भारत में सवा सौ करोड़ लोग रहते हैं वहीं वेनेजुएला में सवा तीन करोड़ भी नहीं रहते। बावजूद इसके, वहां की सरकार ने जब पिछले हफ्ते भारत की ही तरह अचानक नोटबंदी का ऐलान कर दिया तो आम लोग सन्न रह गए। लेकिन भारतवासियों की तरह वे हाथ बांधे सिर झुकाए खड़े नहीं रहे। उन्होंने इस फैसले को गलत बताते हुए इसके खिलाफ सड़कों पर विरोध शुरू कर दिया। इन्हीं सब विरोध प्रदर्शनों के बीच सरकार के इस फैसले के परिणामस्वरूप एक नागरिक की मौत हो गई और फिर दबाव इतना बढ़ा कि सरकार अपना यह फैसला स्थगित करने को मजबर हुई। सिर्फ एक मौत… और फैसला स्थगित।
इसके बरक्स देखें भारत में क्या सीन है! अव्वल तो भाई लोग यह मानने को ही तैयार नहीं कि किसी को कोई तकलीफ भी है। पूरा देश कतार में खड़ा अपने ही कमाए एक-एक पैसे के लिए रिरिया रहा है और प्रधानमंत्री जगह-जगह घूम-घूम कर दावा कर रहे हैं कि सरकार के इस फैसले से तकलीफ केवल उन्हें है जिनके पास अथाह काला धन है और जो भ्रष्ट हैं। प्रकारांतर से यह देश की मेहनतकश आबादी को गाली थी। पर किसी का खून नहीं खौला। सब सिर झुकाए मोदी सरकार की दी हुई देशभक्ति की नई-नई कसौटियों पर खुद को पास कराने की कोशिश में लगे रहे। अब तक सौ से ज्यादा नागरिक सरकार की इस सनक की बलि चढ़ चुके हैं, लेकिन सत्ता पक्ष के नेता हमें देशभक्ति और ईमानदारी का डोज दिए जा रहे हैं।
यह अकारण नहीं है। मूल सवाल हमारी नागरिक चेतना का है। धर्म, जाति, भाषा आदि के आधार पर ही नहीं, हम पार्टियों के आधार पर भी बुरी तरह बंटे हुए हैं। इस वजह से हम यह नहीं देख पाते कि बतौर नागरिक कोई सरकार या पार्टी हमारे हितों पर किस-किस तरह से चोटें करती जा रही है। कभी हम खास सरकार और पार्टी को लेकर अति अपनेपन के भाव से ग्रस्त रहते हैं तो कभी जनता के पीड़ित हिस्से के धर्म, जाति, भाषा, प्रांत आदि के आधार पर उसके प्रति अलगाव के भाव से बंधे होते हैं। नतीजतन, बतौर नागरिक हम हमले झेलते रहते हैं और ढंग से उन्हें संज्ञान में भी नहीं ले पाते। कभी वोट देने के हमारे अधिकार को कर्तव्य में बदलते हुए उसे दंडात्मक बना दिया जाता है, कभी राष्ट्रगान को अनिवार्य करते हुए उसका खास तरीके से सम्मान करने पर मजबूर किया जाता है और कभी गैर सरकारी उपायों से हमारे रहने-सहने, खाने-पीने,  प्रेम और दोस्ती करने के तौर-तरीकों पर पाबंदियां लगाई जाती हैं।
हमें समझना होगा कि यह मामला सिर्फ शासकों की संवेदनशीलता का नहीं, नागरिक समाज की जागरूकता का भी है। शासकों की सनक को चुपचाप सहन करने वाला पालतू समाज यह अपेक्षा नहीं कर सकता कि शासक उसकी जरूरत, चिंता और स्वाभिमान की परवाह करेगा

चार्वाकों के बीच

चार्वाकों के बीच 'महान आप्त पुरुष' का अवतार
कुछ लोगों को गर्व है कि भारतीय समाज ने कभी भी चार्वाक दर्शन को नहीं अपनाया, लेकिन उन्हें चिंता है कि वर्तमान में चार्वाकों की संख्या बढ़ती जा रही है। वैसे भी सुना है कि एक गहन शोध के बाद तय किया गया है कि देश के नागरिकों में देशभक्ति की भावना का ह्रास होता जा रहा है, लिहाजा इसे मजबूत किया जा रहा है। ऐसे में मैं भी इसमें अपना योगदान देते हुए यह स्वीकार कर लेता हूँ कि, हमारा देश कभी जगद्गुरु हुआ करता था, कम से कम दर्शन के क्षेत्र में तो यह वाकई समृद्ध था ही। वेदांत, मीमांसा, सांख्य, योग, वैशेषिक जैसी शाखाओं ने भारतीय दर्शन को बहुत व्यापक बना दिया।
भारतीय दर्शन के मुख्यतः दो आधार हैं, वेद विरोधी दर्शन (इसमें बौद्ध, जैन और चार्वाक आते हैं) और दूसरा  वेदानुकूल दर्शन (इसमें वेदांत, मीमांसा, योग इत्यादि को रखा जा सकता है)। दर्शन चूँकि ज्ञान की विवेचना करता है और इसके जरिये ही तथ्यों को संश्लेषित कर उन्हें स्थापित करता है, लिहाजा भारतीय दर्शन भी ज्ञान के दो मुख्य स्रोतों पर ही टिका है, प्रत्यक्ष अनुभव और दूसरा अनुमान। भारतीय दर्शन के सन्दर्भ में बात करें तो कहा जा सकता है कि वेदानुकूल दर्शन अनुमान आधारित हैं जबकि चार्वाक जैसे वेद विरोधी दर्शन प्रत्यक्षानुभव आधारित। वेद विरोधी दर्शनों में चार्वाक सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, हालाँकि बौद्ध और जैन मत भी काफी व्यापक हैं, लेकिन कहीं न कहीं इनकी प्रेरणा का आधार भी चार्वाक दर्शन ही है और आगे चलकर बौद्ध और जैन भी वेदों की तरह आस्तिकता को स्वीकार कर लेते हैं।
चार्वाक दर्शन स्पष्ट रूप से कहता है कि प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, इसके अलावा सभी अनुमान संदिग्ध हैं। यह दर्शन कहता है कि चूँकि मृत्यु के बाद कुछ भी अवशिष्ट नहीं रहता है, मृत्यु के बाद कर्मों के फल की चिंता करना, स्वर्ग की कामना करना व्यर्थ है। स्वर्ग-नरक, ईश्वर-आत्मा आदि सब पुरोहितों के ढकोसले हैं, जिसे उन्होंने अपनी जीविका चलाने के उद्देश्य से गढ़ लिया है। दुःख से मुक्ति मृत्यु के बाद ही मिल सकती है, इसे पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सकता है लेकिन कम जरूर किया जा सकता है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य स्वर्ग प्राप्त करना नहीं बल्कि सुख प्राप्त करना है और स्वर्ग की कामना भी इसी का प्रमाण है। लिहाजा जीवित रहते हुए ही सुख प्राप्त करने के प्रयास करने चाहिए। कल की आस में आज को बर्बाद नहीं किया जाना चाहिए। कल मोर मिलेगा इस आशा में हाथ में आया कबूतर छोड़ना मूर्खता है। संदिग्ध सोने की मुहर से प्रत्यक्ष कौड़ी अधिक उपयोगी और मूल्यवान है।
वहीं अनुमान आधारित दर्शन की शाखाओं का मुख्य रूप से मत है कि मोक्ष प्राप्ति, ईश्वर अनुभूति, आदि सभी बेहद कठिन हैं, इसलिए सभी को इनका प्रत्यक्षानुभव हो पाना असंभव है। ऐसे में लोगों को सत्य के लिए आप्त (सिद्ध) पुरुषों की बातों पर यकीन करना चाहिए। उनके अनुमानों को सत्य मानना चाहिए। लेकिन यहाँ आप्त पुरुष का निर्धारण एक बड़ी समस्या है।
modiवर्तमान सन्दर्भ में देखें तो यह कुछ वैसा ही है जैसे एक महान आप्त पुरुष, जिसके आप्त वचन प्रमाण की आवश्यकता से परे हैं, उसका अनुमान है कि 50 दिन बाद देश के नागरिकों को स्वर्ग मिल जाएगा। ऐसे में हमें तमाम तथ्यों की अनदेखी करते हुए, ‘आज’ को नरक बनाना पड़े तब भी इस अनुमान पर भरोसा कर लेना चाहिए। वैसे आप यह सवाल कर सकते हैं कि भला वह आप्त पुरुष कैसे हो गया, तो जवाब दो हैं। पहला तो यह कि सवाल और संशय चार्वाक दर्शन के आधार हैं अनुमान आधारित दर्शन के नहीं, और दूसरा यह कि वह आप्त पुरुष है क्योंकि उसने स्वयं दावा किया है।
बहरहाल, यह बिल्कुल सच है कि सभी को सभी चीजों का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं हो सकता है, लेकिन ज़रा एक ऐसी स्थिति पर गौर कीजिए, जिसमें वर्ण विशेष की श्रेष्ठता और नीचता चरम पर है। आप्तता का एकमात्र प्रमाण यह है कि वह वर्ण विशेष से सम्बन्ध रखता है। आडम्बर, कर्मकांड, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक जैसे विश्वासों के बोझ तले समाज दबा हुआ है। लोग इसलिए किसी की मदद नहीं करते कि मदद किये जाने की जरूरत है, बल्कि इसलिए करते हैं ताकि उन्हें पुण्य मिल सके और मरने के बाद इस पुण्य से भरी अंटी के बदले स्वर्ग में एक सीट। शासक और शोषक का पूरा प्रयास और चिंतन-मनन शोषित को जस का तस बनाये रखने का है। राजनितिक, आर्थिक और सामाजिक न्याय तो दूर प्राकृतिक न्याय का दायरा भी कथित आप्त पुरुषों के हिसाब से तय होता हो। स्वतंत्र और वैज्ञानिक चिंतन की धज्जियाँ उड़ गई हों। ऐसी ही परिस्थितियों की प्रतिक्रियास्वरूप चार्वाक दर्शन एक चुनौती के तौर पर सामने आता है। तत्कालीन वैदिक दर्शन के बीच संशयवाद की शुरुआत करता है। मूलभूत विज्ञान की अवधारणा की तरह किसी तथ्य की सत्यता को परखने के लिए विवेक के इस्तेमाल की बात करता है और प्रत्यक्ष प्रमाण की मांग करता है। दिलचस्प बात यह है कि प्राचीन भारतीय साहित्य में चार्वाक दर्शन का स्वतंत्र संकलन कहीं नहीं मिलता है, बल्कि कुछ जगहों पर यह जरूर कहा गया है कि इस दर्शन के प्रवर्तक देवताओं के गुरु स्वयं बृहस्पति हैं, जिन्होंने दानवों के बीच इसका इसलिए प्रचार-प्रसार किया ताकि इसे मानने से उनका विनाश खुद-ब-खुद हो जाए। वैसे दानवों का विनाश तो नहीं हुआ, लेकिन दुष्प्रचार के चलते जनसाधारण में चार्वाक दर्शन ‘यावज्जिवेत सुखं जीवेत, ऋणं कृत्वा घृतं पीवेत’ तक सिमट कर रह गया और एक बार फिर से लोगों ने अपनी-अपनी अंटी भरनी शुरू कर दी।modi चूँकि ‘सवाल’ तो शोषण की कुर्सी का दीमक है, लिहाजा उस पर बैठने वाले कथित आप्त पुरुषों के लिए निश्चित तौर पर इस दर्शन का अप्रसार गर्व की बात रही।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि चार्वाक दर्शन पूरी तरह से त्रुटिहीन हो, लेकिन यह भी दिलचस्प है कि माधवाचार्य जैसे वेदानुकूल दर्शन के विद्वानविरोधी होने के बावजूद चार्वाक दर्शन की अहमियत को स्वीकार करते हैं, बल्कि वह भारतीय दर्शन के क्षेत्र में संशयवाद और उसके जरिये उसे और परिष्कृत करने का भी श्रेय देते हैं। वैसे ये दीगर बात है कि वर्तमान के महान आप्त पुरुष विपक्ष के योगदान को सिरे से खारिज करते हुए पिछले 70 सालों के इतिहास को कूड़ा करार दे देते हैं।

नोटबंदी का विरोध

नोटबंदी का विरोध करनेवालों के नवविरोध के कारण

जब भी कभी जनता में सरकार, सरकारी अदाओं और कुकर्मों के खि‍लाफ आक्रोश उभरने लगता है, कई तरह की राजनीति‍क शक्‍ति‍यां काम करने लगती हैं। नोटबंदी जब फेल हो गई तो सरकार इसे कैशलेस में बदलने की अदाएं दि‍खाने लगी। चूंकि देश में अभी भी करोड़ों लोग नि‍रक्षर हैं, करोड़ों के पास मोबाइल नहीं है और कई करोड़ लोगों के पास अगर मोबाइल है भी, तो उन्‍हें कि‍सी का नंबर मि‍लाने के लि‍ए भी कि‍सी साक्षर की मदद चाहि‍ए होती है, ऐसी हालत में देश में कैशलेस इकॉनमी बनाने की कि‍सी भी कवायद की हवा नि‍कलनी लाजमी थी, सो वह भी नि‍कल ही गई। इस वक्‍त देश के जो हालात हैं, वह साफ बयान कर रहे हैं कि जनता सरकार के सीधे वि‍रोध में आ चुकी है। ऐसे वक्‍त में सरकार ने कुछ ऐसी ही डमी खड़ी की है जो वि‍रोध को लपककर इसे फि‍र से केंद्र सरकार की उन्‍हीं सारी बेवकूफि‍यों की तरफ दोबारा मोड़ देना चाहते हैं, जि‍सके लि‍ए यह सरकार कुख्‍यात है और पहले भी कुख्‍यात रही है। बाबा रामदेव ने नोटबंदी या कैशलेस के वि‍रोध में जो भी बयानात जारी कि‍ए हैं, वि‍रोध करनेवालों को उसके पीछे की साजि‍श जाननी जरूरी है।

असम में हाथि‍यों की हत्‍या के गुनहगार, देश में मि‍लावटी सामान सबसे शुद्ध कहकर बेचने वाले और अपने आड़े ति‍रछे आसनों पर लोगों की मॉर्निंग लाइफ में पलीता लगाने वाले बाबा रामदेव की असलि‍यत कि‍सी से भी नहीं छुपी। फि‍र चाहे वह सलवार कुर्ता पहनकर वि‍रोध के मंच से रातोंरात फरार हो जाने की अदा रही हो या फि‍र नोटबंदी के समर्थन में योग शि‍वि‍रों में योग की जगह भाषण पि‍लाने की, बाबा जी लगभग सभी जगह झूठ का खुला खेल फर्रुखाबादी खेलने के आदी रहे हैं। अभी भी वो जो बोल रहे हैं, मेरा मानना है कि ये वो नहीं जो बोल रहे हैं, बल्‍कि उनसे यह सब बुलवाया जा रहा है। यह सब उनसे बोलवाकर जो व्‍यापक वि‍रोध शुरू हो चुका है, और जो एकदम सही और तर्कसम्‍मत है, उसे वापस समर्थन में बदलवाने और तर्कों की तरफ से चीजों को अतार्किकता की तरफ ले जाने की साजि‍श रची गई है, जि‍से हम सबको समझना होगा।

अब जब नोटबंदी के बाद सरकार अपनी चोंचबंदी की तरफ बढ़ रही है, तो उसे इस तरह की कुछ बोलि‍यों की सख्‍त जरूरत है जो उसके न बोलने पर भी बोला करें और जो वि‍रोधि‍यों का एक ऐसा अलग खेमा तैयार कर सकें जो आने वाले दि‍नों में वि‍रोध के बहाने सरकार के समर्थन में खड़ा दि‍खाई दे और बोले कि हम भी तो वि‍रोध कर रहे हैं। लेकि‍न लोग समझदार हैं और बाबाजी के आड़े-ति‍रछे झूठों को समझ रहे हैं। इसीलि‍ए जब बाबा का वि‍रोधी बयान आया, सोशल मीडि‍या पर पहली प्रति‍क्रि‍या यही नि‍कली कि बाबाजी फि‍र से साजि‍श करने में लग गए हैं। बाबाजी का जो भी वि‍रोध दि‍ख रहा है, वह उनकी भक्‍ति की ही तरह ढोंग है और उनके पतंजलि उत्‍पादों की ही तरह मि‍लावटी है।
इसी तरह से कुछ लोगों को लगने लगा है कि भक्तगण भी नोटबंदी और कैशलेस जैसे शोशों का विरोध करना शुरू कर चुके हैं। जो लोग पहले नहीं बोलते थे, अब बोलने लगे हैं। जो लोग पहले इसके समर्थन में थे, अब एकाएक इसके विरोध में आ गए हैं। इनमें भी दो तरह के लोग हैं। पहले वह जिनके हाथ एटीएम की लाइन लगने के बाद खाली हैं तो वह नोटबंदी का विरोध करना शुरू कर देते हैं, लेकिन जैसे ही हाथ में नोट आता है, उनकी बोलती बंद हो जाती है। ऐसे लोगों को पहचानना जरूरी है क्योंकि वैचारिक रूप से यह लोग हिले हुए हैं। दूसरे वह लोग जो जानबूझकर विरोध की ऐसी हवा बना रहे हैं, जिससे कि वैचारिक रूप से हिले हुए लोग उनके पीछे आकर लग लें और वह जब चाहें, तब एक बार फिर गलत कदम उठाने वाली सरकार के हर गलत कदम के समर्थन में भीड़ बटोर सकें।

देशभक्ति, तुम फ़ुर्सत देखकर मर क्यों नहीं जाती?

देशभक्ति, तुम फ़ुर्सत देखकर मर क्यों नहीं जाती?
केरल में एक फिल्म फेस्टिवल के दौरान कुछ लोगों ने राष्ट्रगान बजने पर खड़े होने से इनकार कर दिया। वहां खड़े कुछ देशभक्तों ने अपनी स्वाभाविक जिम्मेदारी समझते हुए उनकी कुटाई कर दी। बाद में पुलिस पहुंची, उनको गिरफ़्तार किया और जमानत पर रिहा कर दिया। नहीं, घबराने की बात नहीं है। मार-पिटाई करने वाले देशभक्त अरेस्ट नहीं हुए थे। वे सिरफिरे जिन्होंने ‘जन गण मन’ के सम्मान में खड़े होने से इनकार किया, वही पकड़े गए थे।
चेन्ने में भी ऐसा ही हुआ। सिनेमा शुरू होने से पहले राष्ट्रगान बजा, कुछ लोग खड़े नहीं हुए, कुछ देशभक्तों को गुस्सा आया, उन्होंने जिम्मेदारी निभाई और देशद्रोहियों की पिटाई कर दी। बाद में पुलिस आई। केस दर्ज़ हुआ। दोषी पाए जाने पर आरोपियों को 3 साल जेल की सज़ा हो सकती है। तब तक के लिए भीड़ ने कूट-पीसकर उनको तात्कालिक सज़ा दे दी है। ये हवा बदली-बदली है। पिछले कुछ महीनों में मैंने देशभक्ति शब्द का जितनी बार उच्चारण सुना है, उतना पहले कभी नहीं सुना था। इसका असर अच्छा होना चाहिए था। मुझे पहले से कहीं ज्यादा देशभक्त हो जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। उल्टा मुझे देशभक्ति से चिढ़ हो रही है। आपके चश्मे से देखा जाए, तो मैं देशद्रोही हो रही हूं।
इतनी बार देशभक्ति का नाम लिए जाने और बात-बात पर उसे दांव पर लगाने की इस हरकत ने खुद उसी को लहूलुहान कर दिया है। आपको शायद नहीं दिखता, पर रोजमर्रा की छोटी-छोटी, गैरजरूरी बातों पर अपना हवाला दिए जाने से देशभक्ति घायल हो गई है। उसका घाव नहीं भरा गया तो जल्द ही उसके संक्रमित हो जाने का खतरा है। इस तरह तो देशभक्ति की सारी गंभीरता ही खत्म हो जाएगी। हमारे हाथों बेइज्जत होकर मरने से तो बेहतर है कि वह खुद ही अपना गला घोंट ले।
बचपन से लेकर आज तक, एक बार भी ऐसा नहीं हुआ जब ‘जन गण मन’ सुनकर मैं खड़ी ना हुई होऊं। मैंने बहुत कोशिश कि एक ऐसा मौका याद करने की, लेकिन याद नहीं कर पाई। मुझे नहीं याद कि बचपन में कब, किसने सिखाया था कि राष्ट्रगान बजने पर खड़े होना चाहिए।kerala मुझे जब से अपने होने की याद है, तब से बिना ग़लती मैं ऐसा ही करती आ रही हूं। मैं कभी ‘ॐ जय जगदीश’ सुनकर नहीं खड़ी होती। मैंने कभी आरती के प्रति, ईश्वर की प्रार्थना के प्रति श्रद्धा नहीं दिखाई। लेकिन राष्ट्रगान, उसका सम्मान अलग बात थी। उससे मेरा रिश्ता था। इस देश के तिरंगे झंडे से मेरा रिश्ता था। ‘जन गण मन’ गाते हुए हर बार मुझे उसके शब्द महसूस होते थे, होते हैं, होते रहेंगे। मुझे कभी किसी सरकार, किसी पार्टी, किसी अदालत, किसी भीड़ ने ऐसा करने को नहीं कहा। ये मेरी अपनी मर्ज़ी थी। मेरा अपना प्यार था। मेरी अपनी भावना थी।
मैं राष्ट्रवादी नहीं हूं। राष्ट्रवाद के विचार में, इसके चरित्र में मेरा रत्ती भर भी भरोसा नहीं। राष्ट्रगान के लिए खड़े होने और इससे प्यार करके भी मैंने कभी अपने अंदर राष्ट्रवाद का तिनका भर भी महसूस नहीं किया। मेरे लिए ‘जन गण मन’ ‘वंदे मातरम’ और तिरंगे का मतलब अलग है।
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आज़ादी की लड़ाई में हज़ारों लोग शामिल थे। कुछ एक को छोड़कर हम उन बाकी लोगों के नाम तक नहीं जानते। लेकिन हज़ारों लोग थे जिन्होंने हमारे आज के लिए अपना आज बलिदान किया, मैं सोचती हूं उनके बारे में और मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं। उस वक़्त तिरंगा नहीं था, कांग्रेस का झंडा था। उसी का इस्तेमाल होता था। बाद में जब देश आज़ाद हुआ, तो उस झंडे में कुछ बदलाव कर उसको राष्ट्रध्वज की पहचान दी गई। लोग हाथ में वही झंडा लेकर निकलते और अंग्रेज़ों की लाठी खाते। झंडे को अंग्रेज़ों के जूते तले रौंदे जाने से बचाने को वो अपने शरीर की ओट में झंडा छुपा लेते। सिर फूट जाता, डंडे की मार से शरीर टूट जाता, लेकिन उनकी ज़ुबां से ‘वंदे मातरम’ चिपका रहता। कितने लोग इन शब्दों के साथ मर गए। कितने लोगों ने अंग्रेजी हुकूमत की इमारतों पर यूनियन जैक हटाकर भारत का झंडा लहराने की कोशिश में जान दे दी। हम उन सबका नाम कभी नहीं जान सकेंगे। हम उनके त्याग का बदला कभी किसी हाल में नहीं चुका सकते। तो मेरे लिए ये तिरंगा, हमारा राष्ट्रगान उन सब अनजान चेहरों को शुक्रिया कहने का तरीका है। सड़क पर गिरे तिरंगे को देखकर मेरा मन दुखी होता है। राष्ट्रगान सुनकर मेरा शरीर खड़े होकर सम्मान से तन जाता है।
मुझे राष्ट्रगान के ‘जन गण मन’ की भावना से प्यार है। मैं इसी ‘जन’ को ‘भारत भाग्य विधाता’ मानती हूं। जिस दौर में टैगोर ने यह गीत लिखा, तब भारत के सरहदों की, यहां तक कि भारत ‘Idea of India’ की कल्पना भी बहुत मुकम्मल नहीं थी। ऐसे में भी यह गीत ‘पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्रविड़, उत्कल, बंग, विंध्य, हिमाचल, यमुना, गंगा’ को साथ गूंथकर उज्ज्वल भारत की कल्पना करता है। मुझे इस एकता की भावना से मुहब्बत है। ये इश्क़ थोपा नहीं जा सकता। ये जुड़ाव डंडे के जोर पर नहीं बनाया जा सकता। ये रिश्ता डराकर नहीं जोड़ा जा सकता। जब दो लोगों की जबरन शादी कराई जाती है, तो रिश्ते के टूटने की गारंटी 24 कैरट सोने जितनी खरी होती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान को अनिवार्य किया जाना, इसी किस्म की ज़बर्दस्ती है।
अदालत का काम है न्याय करना। अदालत का काम है दंगाइयों को पहचानना। उसका काम है अपने नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना। जनता को देशभक्ति का चाबुक मारना अदालत की जिम्मेदारी कब से हो गई? कानून भावना में कब से बहने लगा? कोर्ट संवेग में आकर निर्णय कैसे सुनाने लगा? और अगर देश की सबसे बड़ी अदालत ही ऐसी अधपकी और जज़्बाती बातें करेगी, तो हम राह दिखाने की उम्मीद किससे करेंगे? हम ग़लत को सही करने की आस किससे रखेंगे?
आप सिनेमा देखने क्यों जाते हैं? वहां क्या आप ख़ुद को देशभक्ति के मोटे रस्से से बांधने जाते हैं? सिनेमा और PT की क्लास में कुछ तो अंतर होता होगा? और सिनेमाहॉल में हर फ़िल्म से पहले राष्ट्रगान सुनाने की शर्त से हासिल क्या होगा? हाथ में पॉपकॉर्न और कोक थामकर सावधान की मुद्रा में राष्ट्रगान गाने से कौन सी देशभक्ति जग जाएगी? क्या ऐसा किए बिना लोगों की देशभक्ति मर जाएगी? इतने साल से तो यूं फिल्म चलने से पहले राष्ट्रगान नहीं बजा करता था, तो क्या आप तब देशभक्त नहीं थे? तब क्या आप देशद्रोही थे? कम देशभक्त थे? क्या अपनी देशभक्ति पर पक्का रंग चढ़ाने के लिए हमें कोई रंगरेज़ चाहिए? यूं सिनेमाहॉल में राष्ट्रगान को अनिवार्य करना एक किस्म की फूहड़ता है।
आजकल हर बात के साथ देशभक्ति नत्थी होकर आती है। Whatsapp के उन बेहूदा ‘देखते ही फॉरवर्ड करें’ जैसे संदेशों में देशभक्ति, सिनेमा देखने से पहले राष्ट्रगान गाना देशभक्ति,  ATM और बैंक के बाहर घंटों कतार में लगना देशभक्ति, एक विशेष पार्टी का समर्थन करना देशभक्ति, सरकार की हर बात को बिना विरोध गटक जाना देशभक्ति, मुंह बंद रखना देशभक्ति, गोरक्षा देशभक्ति…हर बात कहीं से भी शुरू हो, रुकती देशभक्ति के ही दर पर है। ये देशभक्ति है कि 10 रुपये किलो बिकने वाला आलू? क्या आपको एहसास है कि हर बात को देशभक्ति से जोड़कर हम इस शब्द को कितना बाज़ारू और अश्लील बना रहे हैं?
उच्च शिक्षा के कई पाठ्यक्रमों में राष्ट्रवाद एक विषय की तरह पढ़ाया जाता है। काश आप सब राष्ट्रवाद को एक विषय की तरह पढ़ पाते, तो आप जान पाते कि राष्ट्रवाद एक सीमा तक मुल्क की ज़रूरत होता है। एक नए देश को बसने, जुड़ने और शुरू होने के लिए राष्ट्रवाद का ईंधन चाहिए होता है। 1947 में आज़ादी हासिल होने के बाद अब आपकी-हमारी पीढ़ी को ‘भारत, एक राष्ट्र’ की आदत हो गई है। हम जानते हैं कि भारत हमारा देश है। हम देश बनने और उस देश की पहचान से परिचित होने की मजबूरी से बहुत आगे आ गए हैं। अब देश के तौर पर हमारी ज़रूरतें अलग हैं। बच्चा जब पैदा होता है, तब की उसकी ज़रूरतें और उसकी परवरिश का तरीका अलग होता है। उसको मां के दूध की ज़रूरत होती है। 6 महीने का होने पर उसे दाल का पानी और बाकी चीजें खिलाना शुरू किया जाता है। उसे बताया जाता है कि उसकी मां कौन है, पिता कौन हैं, दादा-दादी और बाकी रिश्तेदारों से भी उसका परिचय कराया जाता है। फिर बच्चा बड़ा होता है, स्कूल से कॉलेज और फिर दफ़्तर पहुंच जाता है। उम्र के हर दौर में उसकी प्राथमिकताएं और ज़रूरतें अलग होती हैं। देश भी इसी बच्चे की तरह होता है। हमें आज़ाद हुए 70 साल हो रहे हैं। भारत अब वयस्क हो चुका है। उसे विकास की ज़रूरत है, सतही भावनाओं की नहीं। भारत को अपनी कमियों पर काम करने की ज़रूरत है, पैबंद लगाकर उन्हें छुपाने की नहीं। भारत को अपने लोगों की बेहतरी पर काम करने की ज़रुरत है, उन्हें राष्ट्रवाद का मीठा नशा देकर सुलाने की नहीं।
सुप्रीम कोर्ट द्वारा सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान अनिवार्य किए जाने से मुझे बहुत निराशा हुई है। इस निराशा की अभिव्यक्ति मुझे भारी पड़ सकती है,suprem court लेकिन मुझे इसकी परवाह नहीं। मैं नहीं मानती कि कोई सरकार, कोई अदालत या कोई भीड़ इस मुल्क को मुझसे बढ़कर मुहब्बत कर सकते हैं। हो सकता है मेरे बराबर करें, लेकिन मुझसे बढ़कर कतई नहीं कर पाएंगे। कोई अदालत कोड़े लगाकर मुझे देशभक्ति की शिक्षा नहीं दे सकती। देशभक्त होने का अपना मापदंड मैं तय करूंगी, किसी और का पैमाना मेरी देशभक्ति तय नहीं कर सकता। और इसीलिए मैं सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय की निंदा करती हूं। मैं असहमत हूं अपने सुप्रीम कोर्ट से।
मैंने तय किया है कि 5 मिनट की देरी से सिनेमा हॉल के अंदर जाऊंगी। ऐसा नहीं कि वहां राष्ट्रगान के लिए खड़े होकर मेरे पैर टूट जाएंगे, लेकिन वहां खड़ी होकर मैं इस लिबलिबे-लिसलिसे से राष्ट्रवाद का हिस्सा नहीं बनना चाहती। ‘जन गण मन’ का सम्मान मैं ताउम्र करती रहूंगी, लेकिन सिनेमा हॉल में उसके लिए खड़ी नहीं होऊंगी। सिनेमा हॉल में इस तरह राष्ट्रगान की नुमाइश पर मुझे आपत्ति है। ये मेरे राष्ट्रगान का अपमान है। ये उस गीत की आत्मा का अपमान है। ये उस गीत को लिखने-पिरोने वाले टैगोर की भावनाओं का अपमान है। ये ‘जन’ का, ‘गण’ का और उस ‘मन’ का अपमान है जो कि भारत को तमाम अंधेरों, संकीर्णताओं और जहालतों से बाहर निकालने का वादा कर उजालों ‘जन गण मंगलदायक’ में ले जाना चाहता है। मैं एकबारगी अदालत की तौहीन तो कर सकती हूं, पर भारत के उस ख़ूबसूरत ख़याल का कभी अपमान नहीं कर सकती। ये देशभक्ति का मेरा संस्करण है।

यूपी हाथ से जा चुका है

वे खुद ही कह रहे कि यूपी हाथ से जा चुका है 

यूपी के चक्कर में आठ नवंबर से साठ बार पहलू बदल चुके साहेब के हाथ से यूपी जा चुका है और कम से कम इसका यह कारण बिल्कुल नहीं कि उन्होंने यह नहीं कहा कि वह बचपन से ही यूपी वाला बनना चाहते थे। कह देते तो जो रही-सही चालीस सीटें आने की उम्मीद है, वे भी हाथ से निकल जातीं क्योंकि यूपी वाला कहीं भी हो, कभी हाथ खड़ा करके यह नहीं कहता कि वह यूपी वाला है। बिहार वाला या बंगाल वाला हाथ खड़ा कर देगा, लेकिन यूपी वाला चुपके से चार लोगों के और पीछे ही जाकर खड़ा हो जाता है। खैर, यह तो मजाक है, बहरहाल, यूपी जा चुका है और यह मैं नहीं बल्कि बीजेपी के ही नेता कह रहे हैं। खुद गुजराती शाह साहब भी पहले ही अंदेशा सरसंघकार्रवाह के दफ्तर में जमा कर आए हैं। वैसे भी, यूपी का प्रधानमंत्री बन पाना गुजरात का प्रधानमंत्री बनने जितना आसान नहीं और भारत का प्रधानमंत्री बनने जितना तो बिल्कुल भी आसान नहीं।

बात साठ बार करवट बदलने और यूटर्न लेने की भी नहीं है। बात कालेधन की भी नहीं जिसकी हॉट सीट पर साहेब बार-बार यूपी को बैठाने की कुछ ऐसी कोशिश कर रहे हैं कि मानो सारा कालाधन यूपी में ही जमा है और वह सारे यूपी वाले जो नोटबंदी की मार सह रहे हैं, चोर हैं। बात सिंपल-सी इतनी है कि लोगों के हाथ में नोट नहीं है। डिजिटल का सपना यहां दिखाने की कोई भी कोशिश इसलिए पलट जाती है क्योंकि इंटरनेट ब्लैकआउट यूपी भी उसी तरह से झेल रहा है, जैसा कि बाकी का पूरा देश। कई बार इंटरनेट बैन भी। किसी को कालाधन नहीं जमा करना है, बस जो जमा है, वह निकालना है और वही नहीं हो पा रहा है। वैसे भी, लोगों के संवैधानिक अधिकार का हनन कोई भी करेगा, उसका नतीजा तो उसे भुगतना ही पड़ेगा। बैंक से अपना जमा धन निकालना हमारा संवैधानिक अधिकार है।

वैसे इन दिनों गांव-गांव में यह नारा सबसे ज्यादा लग रहा है कि नोट नहीं तो वोट नहीं। लोग अपनी कमाई ही नहीं ले पा रहे हैं। मंच से साहेब चाहे जितना कह लें कि वही चिल्ला रहे हैं, जिनके पास कालाधन है, लेकिन बात आंकड़ों की करें तो जितनी करंसी छापकर वापस ली थी, तकरीबन सारी वापस पहुंच गई है और जो कहीं दबा हुआ धन है भी, तो उसके लिए कोई नहीं चिल्ला रहा है। अगर कोई चिल्ला भी रहा है तो वह वही लोग हैं जो बैंकों और एटीएम की लाइन में लगे हैं। वैसे अपने शाह भाई ने यहां भी गुजराती मॉडल लागू करने की कोशिश की है और हर लाइन में एक डपटकर पीट देने वाला तैनात किया है, लेकिन असलियत यह है कि डपटने वाले भी लाइन में लगा गुस्सा देखकर डर चुके हैं।

संघ ने पहले ही इनके सिर से हाथ हटा लिया है तो जो अफवाहबाजी की रही-सही ताकत हाथ में थी, वह भी जाती रही। अब ले-देकर दो ही चीजें हाथ में बच रहीं हैं, पहली सोशल मीडिया पर गुंडागर्दी और दूसरी रैली में भीड़ प्रदर्शन। मुसीबत यह है कि इन दोनों चीजों के भेद लोगों के सामने बहुत साल पहले से ही खुल चुके हैं। सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया पर गाली देने के लिए लोग ठेके पर तो रखे ही जाते हैं, रैलियों में भीड़ भी ठेके पर ही आती है। रैली वाले कार्यक्रम में बस एक छोटा-सा बदलाव हुआ है। मुरादाबाद वाली रैली में जो रुपए बांटने थे, वह बीजेपी वाले के पास पकड़े गए तो इस बार कानपुर में बाकायदा उर्जित पटेल से पैसे बंटवाए गए। इन सारी बातों को देखते हुए चार पांच साल पहले एक मित्र की एक बात याद आती है कि बीजेपी जब आती है तो कई जगहों पर न आने के लिए आती है।

रविवार, 18 दिसंबर 2016

जीवन सचमुच विचित्र है

हमारा जीवन घट और चलनी जैसा होता है। इसमें श्रेष्ठताओं की पूर्णता है, तो बुराइयों के अनगिनत छिद्र भी। समंदर-सा गहरापन भी है। सब कुछ अनुकूल-प्रतिकूल अनुभवों को समेट लेने की क्षमता है, तो सहने का अभाव होने से बहुत जल्द प्रकट होने वाला छिछलापन भी है। तूफानों से लड़कर मंजिल तक पहुंचने का आत्मविश्वास है, तो तूफान के डर से नाव की लंगर खोलने जितना साहस भी नहीं है। ऐसे ही लोगों के लिए फ्रेडरिक लैंगब्रिज ने कहा कि दो व्यक्तियों ने एक ही सलाखों से बाहर झांका, एक को कीचड़ दिखाई देता है, तो दूसरे को तारे दिखाई देते हैं।’
जीवन सचमुच विचित्र है। कभी हम जिंदगी जीते हैं, तो कभी उसे ढोते हैं। कभी हम दुख में भी सुख ढूंढ़ लाते हैं, तो कभी प्राप्त सुख को भी दुख मान बैठते हैं। कभी अतीत और भविष्य से बंधकर वर्तमान को निर्माण की बुनियाद बनाते हैं, तो कभी अतीत और भविष्य में खोये रहकर वर्तमान को भी गंवा देते हैं। एडवर्ड बी बटलर ने उत्साह का संचार करते हुए कहा है कि एक व्यक्ति 30 मिनट के लिए उत्साही होता है, दूसरा 30 दिनों के लिए, लेकिन ऐसा व्यक्ति, जो कि 30 वर्षों तक उत्साही रहता है, उसे ही जीवन में सफलता प्राप्त होती है।’ कुछ लोगों का जीवन ऐसा होता है, जिसमें गंभीरता का पूर्ण अभाव होता है। वे बड़ी बातों को सामान्य समझकर उस पर चिंतन-मनन नहीं करते, तो कभी छोटी-सी बात पर प्याज के छिलके उतारने बैठ जाते हैं। इसीलिए एचएम टॉमलिसन ने कहा कि दुनिया वैसी ही है, जैसे हम इसके बारे में सोचते हैं। अपने विचारों को बदल सकें, तो हम दुनिया को बदल सकते हैं।

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

खुद से बात

खुद से बात
यूं बॉस से मुलाकात थोड़ी ही देर के लिए होती है, लेकिन उनके भीतर बॉस से बातचीत चल रही होती है। उन्होंने महसूस किया कि वह अकेले में भी किसी न किसी से बात करते रहते हैं। बस अपने से ही बात नहीं हो पाती।
‘अपने से बात करिए न! और ऐसे बात करिए, जैसे आप अपने बेहतरीन दोस्त से करते हों।’ यह कहना है डॉ. इसाडोरा अलमान का। वह मशहूर साइकोथिरेपिस्ट हैं। मानवीय रिश्तों पर कमाल का काम किया है। उनकी चर्चित किताब है, ब्लूबड्र्स ऑफ इम्पॉसिबल पैराडाइजेज। हम सब अपने से बात करते हैं। यह अलग बात है कि हमें पता ही नहीं चलता। अनजाने में जो बात हो रही होती है, वह किसी न किसी से बात का हिस्सा होती है। हम अक्सर दूसरे से बात कर रहे होते हैं। कभी किसी से सवाल कर रहे होते हैं। कभी किसी को जवाब दे रहे होते हैं। हम बात अपने से कर रहे होते हैं, लेकिन उसमें शामिल कोई दूसरा ही होता है।

असल में, हम जब अपने से बात करें, तो कोई दूसरा उसमें नहीं होना चाहिए। हम अकेले हों, तो सिर्फ अपने से बतियाएं। अपना ही हालचाल पूछें। अपने ही दिल की सुनें। हम अक्सर दूसरों की ही सुनते रहते हैं। या सुनाते रहते हैं। हम अपने को ही नहीं सुन पाते। हम जब अपना ख्याल करते हैं, तो अपना राग-रंग भी सुनते हैं। अपनी बात कहते-सुनते हैं, तो जिंदगी बदलने लगती है। हम जब अपने से बात करते हैं, तो कुछ अपना ही दबा-छिपा बाहर आता है। अपने से बात तो कीजिए, उससे कुछ बेहतर निकल सकता है। हमारी कोई अनसुलझी गुत्थी उससे सुलझ सकती है।

उदाहरणों का प्रयोग

बचपन में बच्चों को प्रेरित करने के लिए कक्षा में शिक्षक अक्सर एक कहानी का उदाहरण देते थे कि ‘एक लड़के से उसके पिता ने जब परीक्षा का परिणाम जानने का प्रयास किया तो वह अपने वर्ग के कई छात्रों का नाम लेकर कहने लगा कि ये सभी फेल हो गए हैं। पिता ने पूछा कि तुम अपना परिणाम बताओ… मैं तुम्हारे बारे में जानना चाहता हूं। इस पर बच्चे ने बड़ी मासूमियत से कहा कि जब ये सभी फेल हो गए तो मैं कैसे पास हो सकता हूं।’ बचपन की यह कहानी भले ही गुदगुदाने वाली थी और शिक्षक भी हंसी-हंसी में कुछ प्रेरणा जागृत करने का प्रयास करते रहे हों, लेकिन इसके संदर्भ गहरे हैं। इस तरह के उदाहरण हमें अक्सर सुनने को मिलते हैं। कई जगह हम भी कोई उदाहरण देकर लोगों को अपनी बात समझाने की कोशिश करते हैं। धीरे-धीरे यह लोगों का औजार बनता जाता है।
उदाहरणों का प्रयोग औजार के रूप में होने लगे तो यह घातक और अनुचित है। बैंकों में लगे कतारों को लेकर राजनीतिक और गैर-राजनीतिक लोगों द्वारा दिए गए उदहारण को ही लीजिए। कोई सैनिकों की मुश्किलों का उदाहरण देकर बैंकों के आगे की भीड़ को सब्र का पाठ पढ़ा रहे हैं, तो कोई आजादी की लड़ाई में शहीद हुए लोगों से तुलना कर उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। कई लोगों का मानना है कि कष्टों और संघर्षों से ही आजादी नसीब होती है। राजनीति के कई धुरंधर कोई न कोई उदाहरण का प्रयोग कर अपना हित साधते नजर आ रहे हैं। पांच सौ और हजार रुपए को बंद किए जाने पर कई नेताओं का उलटा-सीधा बयान असंवेदनशील और गंभीर हैं। सेना का पूरा जीवन संघर्ष का होता है। बेशक उनके संघर्षों से प्रेरणा लेनी चाहिए। लेकिन एक दूसरा पहलू भी है कि सेना का जीवट और संघर्ष ही उन्हें असैनिक नागरिकों से अलग करता है। उन्हें संघर्षों का और मुश्किल हालात से जूझने के लिए कई तरह के प्रशिक्षण दिए जाते हैं, ताकि उनका मनोबल कम न हो, वे हमेशा उर्जावान रहे।
लेकिन हमारे समाज की आम हकीकत क्या है? एक साधारण नागरिक को सड़क पर सही तरीके से चलने तक के लिए प्रेरित नहीं किया जाता है, तो वे विषम परिस्थितियों में संयम कहां से बरतेंगे! अपने देश में कई ऐसे उदाहरण हैं कि केवल संयम खोने से कई हादसे हुए हैं और हजारों लोगों की मौत हुई है। इन उदाहरणों और तुलना करने वाले लोगों का ध्यान इस प्रश्न पर भी जाना चाहिए कि कष्ट और संघर्ष हमेशा आम लोगों के हिस्से ही क्यों आते हैं! महंगाई से लेकर प्राकृतिक आपदा की मार झेलें आम लोग, सीमा पर शहीद हों उसी साधारण लोगों की संतानें! सवाल है कि नेता और बड़े अफसर, बड़े व्यवसायी संघर्षों में क्यों नहीं होते या दिखते? आज जब पूरा देश कतारों में खड़े होकर अपने द्वारा जमा पैसे निकालने के लिए तकलीफें सह रहा है तो इन नेताओं के बेसुरे बोल इन्हें आहत करने पर तुले हुए हैं। हथियार रूपी उदाहरण आम इंसानों का सीना ही छलनी करते हैं।
उदाहरण हमारी संवेदनाओं को कुरेदते हैं। जो जख्म हमारे सत्ता में बैठे लोग हमें देते हैं, सत्ता के करीबी लोग कोई उदाहरण गढ़ लेते हैं और हमारी जख्मों पर एक लेप चढ़ा देते हैं। यह लेप दर्द तो जरूर कम करता है, लेकिन घाव भरता नहीं। वह अंदर ही अंदर गहरा होता जाता है। जब तर्क कमजोर पड़ने लगते हैं तो लोग उदाहरणों का प्रयोग करते हैं। इन दिनों राजनीति और सामाजिक गतिविधियों में तर्क से ज्यादा कुतर्क से अपनी बात मनवाने का प्रचलन बढ़ गया है। मनगढ़ंत उदाहरण और झूठे तर्कों के सहारे सही को गलत और गलत को सही करने का खेल चल पड़ा है। इस खेल में आम लोगों से लेकर नेता अफसर और व्यवसायी सभी एकरूपता से लगे हुए हैं।
कई बार उदाहरणों का प्रयोग तथ्यों को छिपाने के लिए भी किया जाता है। संसाधन की अनुपलब्धता या हमारी कमजोर तैयारी को छिपाने के लिए उदाहरणों का प्रयोग कर आम लोगों के दिमाग पर एक परदा डाल दिया जाता है। एक सभ्य और संवेदनशील मुल्क में ऐसे उदाहरणों और तुलना की राजनीति से हम आम भावना से खेल रहे हैं। भारत की सभ्यता रही है दूसरों की तकलीफों को उसे बिना आभास हुए दूर करने की। लेकिन इन नेताओं और किसी खास नेता के महिमामंडन में लगे लोगों द्वारा की गई टिप्पणी से न केवल पीड़ित व्यक्ति के जख्म हरे हुए हैं, बल्कि उनके भीतर नफरत को भी हवा मिल रही है। पीड़ा में जब कोई हो तो उसे सहायता की जरूरत होती है, न कि उपदेश के। इस तथ्य को समझने की जरूरत है।

दर्द सहने की प्रायोजित चिंता

दर्द सहने की प्रायोजित चिंता का विकास हमारी सुदीर्घ परंपरा में रहा है। हम परंपरा के आदी होने से पहले एक सोपानगत यात्रा तय करके आते हैं। सहनशीलता की अमानुषिक पराकाष्ठा हमें संस्कृतिवाद की घुट्टी के प्रारूप में मिली कि इसका रंग असर करता गया और हम सांस्कृतिक नशे का शिकार हो गए। देश की आधी आबादी जिस रंग-रोगन में डूब कर प्रतिष्ठा के गोते लगा रही है, पर्व और त्योहारों पर भूखों मर कर उपवास के परचम लहरा रही है, नाक-कान छेदा रही है, तरह-तरह की धातुएं ढो रही है, यह सब भी दर्द के हद से गुजरे हुए सांस्कृतिक लक्षण हैं। ढोना हमारी ग्रंथि में शामिल हो चुका है। हमारी आध्यात्मिकता में इसके लबरेज पाखंड नग्नता लिए अभिनंदित होते रहे हैं। असमानता के कठोर आघातों से लहूलुहान हमरी शास्त्रीय दहाड़ लगातार यह बताती आई है, सहने की क्षमता का विकास करो। तुलसी ने भी अपनी मानस वाली किताब में लिखा है कि तप बहुत ऊंची चीज है। इतनी ऊंची चीज कि लगभग खत्म होने के कगार तक खुद को तपाओ।
तुलसी कोई उबीधा बात नहीं कह रहे थे। इस पर हमारे स्वदेशी दर्शन संस्कृत काल से ही दीपक राग गाते आ रहे थे। देश की जनता तप करने में तब इतनी व्यस्त थी, इसके प्रमाण आज इक्कीसवीं सदी के मानव मस्तिष्क की सामाजिक जड़ता में प्रमाणित है। जब भी ऐसे तप होते थे शारीरिक अक्षमताएं बढ़ जाती थीं और देह स्वभावहीन हो जाती थी। भोजन और पानी शरीर की आवश्यक नियमितता के अनुकूल नहीं मिलते थे। शारीरिक और मानसिक रोग जड़ीभूत होते गए, ग्रंथियां बनती गर्इं, संततियां सांस्कृतिक होती गर्इं। माना कि मनुष्य तप करके, शरीर को ठिकाने लगाते हुए अगर शक्ति यानी पदवी पा भी लिया तो यह तय है कि वह स्वाभाविक नहीं रहेगा। मानसिक और शारीरिक कमजोरियां उसे कुंठित जरूर बना देंगी। इन परिघटनाओं से ही हमारी सामाजिकता में जड़ आध्यात्मिकता का विकास हुआ।
आदिम युग से हम शौर्य और शृंगार के ज्वलंत लोभी रहे, हमने समाज में सहजता नहीं बरती। हमारा लोभ कुंठा की संस्कृति रचता गया, जिसे हमारी पुश्तैनी बीमारी सराहते हुए नहीं थकती। हमारी परंपरा इतनी दागी हुई कि जो दिखता है वह झूठ है करारती गई। यह हमारी तपती हुई सच्चाई है। इसी संस्कृति की भांग खाए हमारी संततियां हराम के मिष्ठान्न पर डाका डालने में मशगूल होती गर्इं। शास्त्रीयता के एजेंट इसी पक्ष में अपने दार्शनिक सिद्धांत खड़े करते गए। यह बात सोचने की है कि राजतंत्र में बड़े से बड़े दर्द झेल कर ज्यादातर जनता ऐयाश राजा के खिलाफ बगावत क्यों नहीं करती थी! कारण हमारी व्यवस्था लगातार दर्द सहने के आसान तरीके सीख रही थी। जनता को यहां तक बताया जा चुका था कि कर्म करते रहो फल की इच्छा भी न रखो।
आज बेरोजगारी के दौर में हम तप कर रहे हैं, सिर पीट-पीट कर रट रहे हैं, कागद गोद-गोद कर योग कर रहे हैं। इस लोकतंत्र में हम तपस्या के हठ आसान लगा रहे हैं। तीस से चालीस तक पहुंचते हुए हम खुद को अपराधी करारने वाली जीवन पद्धति में जी रहे हैं। विभागों में स्वीकृत पद भी नहीं भरे जा रहे हैं और हम अपनी कुंठा में आरक्षण पर उपदेश धांगने में महारत हासिल कर रहे हैं। हमारी मानसिकता सत्ता से दर्द सहने की अविकल आदी हो चुकी है। आजकल हमसे कहा जा रहा है आप देश के लिए इतना भी दर्द नहीं सह सकते! क्या हम दर्द को पहचानने लगे हैं? हमें बताया जा रहा है देश के जवान सीमा पर जीरो डिग्री तापमान में बंदूक लिए तैनात हैं और तुम दिन भर बैंक में लाइन लगा कर नहीं खड़े हो सकते! हमें यह पहचानने की जरूरत है कि हमसे यह कौन कह रहा है। यह बहुविकल्पीय प्रश्न नहीं है। इसके जवाब सबको पता हैं। हमें जवाबों से भटकाया जा रहा है। यह रियाज भर है- कुंठा की ओर लौटो, तप की ओर लौटो, पौराणिक जहालत की ओर लौटो। लौटो कि जैसे कुछ नहीं बदला, जैसे तुम दर्द की हद से गुजर चुके हो। लौटो और शहंशाह से कह दो हमें दवा में दर्द चाहिए। कल एक पोस्टर देख रहा था- ‘भक्त को दर्द नहीं होता।’ लेकिन यह बताना आज कितना खतरनाक है।
जो दवा में दर्द मांग रहा हो उसे सहलाना कितना घातक है। हमारा इतिहास इस तथ्य का गवाह है कि जब भी कोई चीजों की वास्तविकता की देख-परख करने वाला बुद्धिमान व्यक्ति जनता के बीच यह कहने की कोशिश करता है, तो सजा पाता है, देशद्रोही करार दिया जाता है। सूली पर टांग दिया जाता है, तेज आग की लपटों के हवाले कर दिया जाता है, हाथियों से कुचलवा दिया जाता है। और जो अपराधों के जंगल में सत्ता का साथ तुकबंदियां करते, चापलूसी में खूंखार की पूंछ सहलाते हैं, हत्यारी हुकूमत में राग मल्हार गाते हैं, दवा में दर्द बेचने का साहित्यिक दावा करते हैं, वे सम्मानित होते हैं। लेकिन सभ्यता के इतिहास में इनके नाम गायब हो जाते हैं।

विचारों की स्वतंत्रता

एक सभ्य समाज में विचारों की स्वतंत्रता की अहमियत कितनी है, इससे हम सब वाकिफ हैं! सभी स्त्री-पुरुष के अपने-अपने अलग विचार और मान्यताएं होती हैं। किसी के विचार किसी पर जबरन थोपे नहीं जा सकते। अगर ऐसा होता है तो यह विचार स्वातंत्र्य को छिनने या दबाने जैसा है। विचार सिर्फ मन में उभर कर रह जाते हैं और व्यक्त नहीं किए जाते तो उनका महत्त्व उसी व्यक्ति तक सीमित रह जाता है। लेकिन व्यक्त किए गए विचारों का महत्त्व यकीनन ज्यादा है, क्योंकि उनका प्रभाव उस व्यक्ति से संबंधित सभी लोगों और समाज पर भी पड़ता है। अगर कोई स्त्री या पुरुष अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करे और उसमें खुद को ढालते हुए कोई कार्य करना चाहे तो जाहिर है कि कार्य के परिणाम की जिम्मेदारी उसकी अपनी ही होती है। इसीलिए अपने विचारों पर अमल करना मजबूत इरादे वाले और धैर्यशील लोगों का ही काम है। यह जरूरी नहीं कि आपके संपर्क में आने वाले सभी लोग, आपके विचारों से सहमत हों। आपके विचार जान कर आपा खोने वाले, परिणाम से डरने वाले, जानबूझ कर आपका विरोध करने वाले और आपका मजाक उड़ाने वाले बहुत से लोग मिल जाएंगे। जब आप अपने विचारों पर अमल करने के लिए कदम बढ़ाने लगें तो आपके रास्ते में कई तरह की रुकावटें डालने वाले लोग भी आपको मिल जाएंगे। ऐसे में मन को दृढ़ बना कर आगे बढ़ना या अपने आप को रोकना आपका स्वतंत्र निर्णय है।
पिता-पुत्र के भाई-भाई के और पति-पत्नी के विचार भी कई मामलों में भिन्न हो सकते हैं। ऐसे में आपस में मनमुटाव और झगड़े भी हो सकते हैं। पिता-पुत्र या भाई-भाई के भिन्न विचारों को लेकर होने वाले झगड़े या मनमुटाव को हमारा समाज सामान्य रूप में स्वीकार कर लेता है। लेकिन पति-पत्नी के भिन्न विचारों को लेकर हुए झगड़े और मनमुटाव को समाज टेढ़ी नजर से देखता है। पत्नी के विचार पति से भिन्न होने की बात समाज बर्दाश्त नहीं कर पाता। अगर पत्नी अपने स्वतंत्र विचारों पर अमल करती है और पति उसका विरोध कर रहा है, तो पैदा होने वाली पारिवारिक समस्या के लिए जिम्मेदार पत्नी ही मानी जाती है।
आज से कुछ दशक पहले इसी कारण को लेकर विवाहित स्त्रियां अपने विचारों को व्यक्त करने से डरती थीं। वे सोचती थी कि कहीं पति ने विरोध जताया तो गृहस्थी छिन्न-भिन्न होने में देर नहीं लगेगी। यही सोच कर वह मन मार कर रह जाती थी। ऐसे में परिवार के अन्य सदस्यों का साथ होना तो असंभव-सा था। उसके अपने-अपने अभिभावक और माता-पिता भी उसे पति के विचारों के विरुद्ध कदम उठाने से साफ तौर पर मना कर देते थे। उसे वोट भी उसी पार्टी और उम्मीदवार को देना पड़ता था, जिसे पति पसंद करता था! अपनी सोच या अपने स्वतंत्र विचारों को वह कार्यान्वित नहीं कर सकती थी।लेकिन वक्त ने करवट बदला। पाश्चात्य संस्कृति के समाज पर कुछ बुरे प्रभाव अवश्य पड़े, लेकिन एक अच्छा प्रभाव भी पड़ा। महिलाओं ने अपने आप को कमजोर और लाचार समझना छोड़ दिया। अपने बलबूते पर काम करने के लिए मन को मजबूत बना लिया और अपने स्वतंत्र विचारों पर अमल करना भी सीख लिया। जैसे ज्योत से ज्योत जलाई जाती है, वैसे ही एक स्त्री दूसरी स्त्री की प्रेरणा बनती गई। इससे समाज में भी जागृति आ गई। शुरू-शुरू में सामाजिक स्तर पर जरूर इसका विरोध हुआ। लेकिन इस बीच एक अच्छी बात यह हुई कि कुछ पुरुषों ने अपनी पत्नी का साथ देकर एक अनुकरणीय उदाहरण समाज के सामने रखा। इसके बावजूद कि पत्नी के विचार उनके विचारों से नहीं मिलते थे।
ऐसे उदाहरणों ने यह भी साबित किया कि इससे पारिवारिक शांति में कोई खलल नहीं पड़ती। इसका ताजा उदाहरण बच्चन परिवार का है! प्रसिद्ध अभिनेता अमिताभ बच्चन राजनीतिक रूप से अपनी पसंद और समझ से किसी खास पार्टी के पक्ष में कोई राय रखते हों, उनकी पत्नी जया बच्चन उनसे इतर राय रखती हैं। जया के अपने अलग विचार हैं। अपने लिए उन्होंने अलग कार्यक्षेत्र चुना है। हो सकता है कि अमिताभ बच्चन अपनी पत्नी जया बच्चन के राजनीतिक पक्ष और विचारों के समर्थक नहीं हों, लेकिन वे उनका कभी विरोध करते नहीं दिखते, बल्कि जरूरत पड़ने पर उनकी सहायता भी करते हैं। इसका उनके निजी संबंधों और जीवन पर कोई नकारात्मक असर नहीं पड़ा है।यह तो एक मशहूर हस्ती का उदाहरण है। लेकिन सामान्य लोगों के बीच भी ऐसे किस्से आम हो रहे हैं जिसमें पति या पत्नी के सोचने-समझने, विचार और काम के क्षेत्र भिन्न हैं, लेकिन उनके निजी संबंध सहज हैं। दरअसल, विचारों की अभिव्यक्ति की आजादी सभी के लिए जरूरी है। समाज या राजनीति, किसी भी क्षेत्र में सत्ताधारी पक्ष की वह हर बात मान लेने की जरूरत नहीं है, जो आपको उचित नहीं लगती हो। विचारों की आजादी सबकी अपनी है

पुराने दौर में घड़ियां

जाने कितने महीनों बाद घड़ी को हाथ में बांधा। मोबाइल ने तो घड़ियों का काम ही तमाम कर दिया लगता है। पुराने दौर में घड़ियां अगली पीढ़ियों तक चलती रहती थीं। कभी-कभी तो लालच भी मिलता था कि इस बार बढ़िया पढ़ोगे तो घड़ी इनाम में मिलेगी। और मिलती भी थी। ‘आपको क्या लगता है कि घड़ियों को सुधारने के धंधे में अब उतना जोर नहीं रहा?’ इतना कहना था कि उसने कहा- ‘नहीं साहब, मुझे तो बहुत काम मिलता है। देखो, सुबह से रात तक खड़े-खड़े ही निकल जाता है। इस पूरे बाजार में मेरा नाम चलता है। सबसे पुराना घड़ीसाज हूं यहां का।’ उसकी दुकान में बहुत सारी पुरानी और नई घड़ियां शो-केस में रखी थीं। दीवार पर भी ढेर सारी दीवार-घड़ियां टंगी हुई थीं। बची हुई खुली घड़ियों और उनके बीच की खाली जगह में धूल यह बयान कर रही थी कि अनेक रोजगार की तरह बहुत से काम खत्म हो रहे हैं। घड़ीसाज भी अब बहुत ही कम बचे हैं। दरअसल, हुआ यों कि छुट्टी का उपयोग करके वक्त को घर के कई दिनों से रुके हुए कामों में लगाया। तो बच्चों और अपनी घड़ियों को लेकर घड़ी की दुकान पर पहुंचा और दुकानदार से कहा- ‘आज मैं घर की सारी घड़ियां निकाल कर लाया हूं।’ घड़ीसाज की दुकान के पास ही एक टीवी सुधारने की दुकान है। वहां पर भी कई पुराने सीआरटी टीवी धूल खा रहे हैं और उस दुकान के मालिक की हालत भी वैसी ही है। दौर बदल रहा है। आजकल इस्तेमाल करो और फेंको के जमाने में रेडियो, टेपरिकार्डर देखने को भी कम मिलते हैं।
हमारे घड़ीसाज ने कहा कि थोड़ी देर रुकें, कोशिश होगी कि अभी ही चारों घड़ियों को ठीक कर दूं। इस बीच रमेश भाई याद आए। तब मैं आठवीं-नौवीं में था और वे अपनी पढ़ाई पूरी करके, नहीं… शायद अधूरी छोड़ कर घड़ियों को सुधारने का काम करने लगे थे। परिवार बड़ा था, कमाई सीमित। नियमित कमाने वाले सिर्फ उनके पिताजी थे। जब भी उससे आगे पढ़ाई कि बात करता तो उनकी बड़ी-बड़ी आंखें छलक जाती थीं। वे शायद आंसू ही रहते थे, लेकिन वे कहते थे कि इतना बारीक काम करने से उनकी आंखों से पानी झरने लगता था। उनके पास जब भी जाता था तो कोई न कोई घड़ी वे खोल कर बैठे मिलते। छोटे गिलास की शक्ल का एक लेंस होता था जो घड़ी के बारीक पार्ट को देखने के काम आता था। मुझे लगता था कि वे मुझे भी यह काम सिखा दें तो मैं भी इसी तरह लेंस लगा कर काम करूंगा। कोई भी घड़ी खोल कर देखते ही वे बता देते थे कि यह घड़ी ठीक होगी कि नहीं। वे इसलिए भी प्रभावित करते थे कि वे घड़ियों को तो सुधारते ही थे, साथ ही एक काम और करते थे। पास के ही छोटे डाकघर की डाक को बांध कर बड़े डाकघर में जमा कराना होता था और वहां से डाक लेने का भी काम था। हालांकि न तो वे डाक विभाग के कर्मचारी थे, न वहां पूरे समय रहते थे। उन दिनों डाक घरों में डाक को लाख से सील किया जाता था तो यह सील करने का तरीका भी मुझे बहुत ही आकर्षक लगता था।
वक्त बीतता गया। मैं अपनी पढ़ाई में उलझ गया। शहर से बाहर गया। वापस आया तब तक रमेश भाई का कोई अता-पता नहीं था। लोग कहते थे कि उनके पिताजी रिटायर हो गए और तमिलनाडु के अपने गांव चले गए। उन दिनों फेसबुक वगैरह नहीं था। खैर-खबर एक दूसरे से मिल कर और चिट्ठियों के बहाने ली जाती थी। डाक घर गया तो वहां भी उन्हें जानने वाला कोई नहीं मिला।घड़ी वाले बड़े उस्ताद की दुकान पर पहुंचा तो वह दुकान तोड़ कर कुछ शोरूम बन गए थे। बड़े उस्ताद के बारे में किसी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। आखिर उसने कहा- ‘आपकी तीन घड़ियां ठीक हो गई हैं। एक कल मिल सकेगी।’ मैंने कहा कि ठीक है, कितने पैसे हुए तो उसने दो सौ तीस रुपए बतए। साथ खड़ी मेरी पत्नी ने कहा कि कुछ कम करने के लिए कहो। इतनी घड़ियां ठीक करवाई हैं। मेरा मन उस घड़ीसाज में रमेश भाई को देख रहा था… उनके उस्ताद को देख रहा था! खत्म होते जा रहे पुराने रोजगारों को देख रहा था। अपने उस दौर के सपने को देख रहा था, जब मैं ग्लासनुमा लेंस लगा कर अच्छा घड़ीसाज बना! खैर, घड़ीसाज ने जितने पैसे मांगे, उतने देकर चला आया। चार घड़ियों को ठीक करने और रमेश भाई के साथ बिताई तमाम घड़ियों को याद दिलाने के लिए पैसों के कोई मायने नहीं रह गए थे।

अपेक्षा का बोझ

अपेक्षा का बोझ
काफी अरसे बाद एक मित्र के घर गई तो उनसे बहुत सारी बातें हुई। बातचीत के दौरान ही उसकी छोटी बेटी भी वहां आ गई। मैंने उसका नाम पूछा। उसने चहकते हुए अपना नाम बताया- ‘पूर्वी’। इसके बाद मेरी मित्र ने एक बड़े अंग्रेजी माध्यम के स्कूल का नाम गर्व से लेते हुए कहा कि पूर्वी वहां पर पढ़ती है। मैंने भी इस बात पर खुशी जाहिर की। दरअसल, उस स्कूल में दाखिला लेना एक टेढ़ी खीर है। मैंने पूर्वी से प्यार से पूछा कि बताओ पूर्वी का मतलब क्या होता है! बच्ची ने कुछ देर तक इस बारे में सोचा और फिर कुछ कहने ही वाली थी कि इतने में उसकी मां ने बीच में ही कहा कि अरे बेटा, वह वाली कविता सुनाओ। वह तुम अच्छी सुनाती हो। बच्ची थोड़ी देर बिना किसी प्रतिक्रिया के वहां खड़ी रही । इस दौरान उसकी मां ने फिर से अपनी बात दोहराई की जल्दी सुनाओ… तुम अच्छी बच्ची हो न! बच्ची तुनक कर वहां से चली गई, यह कहते हुए कि मुझे नहीं सुनाना।
इस पर मेरी मित्र बच्ची से काफी नाराज हो गर्इं। कहने लगीं कि पता नहीं, ऐसा क्यों है… आजकल के बच्चे बोलते ही नहीं हैं। यों तो बहुत बोलती है, मगर जब कुछ सुनाने को बोलो तो पता नहीं, इसको क्या हो जाता है। उस दिन की बात के बाद मेरे मन में कई सारे सवाल उठने शुरू हो गए। दरअसल, इस तरह के उदाहरण हमें अक्सर ही घर-परिवार आस-पड़ोस में देखने-सुनने को मिलते रहते हैं। बड़ी उम्र के लोग अक्सर बच्चों से अपने अनुरूप ही व्यवहार करने की अपेक्षा रखते है। मसलन, ये करो, ये मत करो, वहां मत जाओ, यहां मत खेलो, धीरे बोलो, ज्यादा उछल-कूद नहीं करो..! पता नहीं हमलोग चाहते क्या हैं! कभी-कभी लगता है कि हम बच्चों से उनका बचपन ही छीन रहे है और बड़ों से अपेक्षा करते हैं कि वे अपने अंदर के बच्चे को मरने न दें। यह एक मुश्किल चुनौती है।
आमतौर पर हमारे घरों में सभी कामों के लिए स्थान तय होता है। जैसे बैठक कक्ष, रसोईघर, शयनकक्ष आदि। मगर बच्चों के लिए कोई खास जगह नहीं होती है। यह बात घर की परिधि से निकल कर स्कूल तक भी जाती है। लेकिन बच्चों को अपनी बात रखने की जगह न तो स्कूल में मिलती है और न घर में। ज्यादातर माता-पिता के पास घर में इतना समय नहीं होता कि वे उनकी बात को शांति से सुन सकें और यह समझ सकें कि बच्चा यह बात क्यों कह रहा है। जो बातचीत होती भी है तो सिर्फ निर्देश देने वाली। मसलन, जल्दी उठ जाओ, नाश्ता कर लो, ये काम जल्दी कर लो तो टॉफी देंगे, होमवर्क कर लो और अब सो जाओ! सब पहले से तय है।स्कूली पाठयक्रम और शिक्षण विधियां भी बच्चों को इसकी जगह दे पाने में विफल हैं। अगर कोई बच्चा स्कूल में प्रश्न पूछता है तो वह कमजोर समझा जाता है। दूसरी ओर, घर पर अच्छे बच्चे मां-पिता से ज्यादा सवाल-जबाव नहीं करते हैं। अगर ज्यादा कुछ पूछ लिया तो फिर वह ‘आज्ञाकारी’ बच्चा नहीं रहा। स्कूल में तो अनुशासन के नाम पर बच्चों के मुंह पर अंगुली रखने को कहा जाता है। सामान्यतया प्रश्न पूछना दोनों जगहों पर ही अच्छा नहीं समझा जाता। स्कूल में तो बच्चों को यह मान कर ही कुछ सिखाने की कोशिश की जाती है कि उसको पहले से कुछ नहीं आता है। जहां तक मेरा अनुभव कहता है, बच्चों को अपनी बात कहने की जगह कोई कहानी सुनाने के बाद ही होती है कि इस कहानी से क्या शिक्षा मिली। मगर यहां पर भी अपेक्षित उत्तर पहले से ही तय होते हैं।
बच्चा क्या सोचता है, वह क्या चाहता है, वह क्या करना चाहता है, इसका ध्यान रखना किसी को जरूरी नहीं लगता है। शायद इसलिए कि हमें यह बात महत्त्वपूर्ण नहीं लगती है। सवाल है कि ऐसे में बच्चे क्या करें! कुछ माता-पिता को यह कहते हुए सुना जा सकता है कि हमारा बच्चा तो ऐसा करता है, मगर फलां बच्चा तो वैसा करता है! हम हर समय उसकी तुलना दूसरों से करते रहते हैं। बच्चों की इस तरह से अन्य बच्चों से तुलना उनके सहज विकास और जिज्ञासा को पल्लवित और पुष्पित होने से रोकती है। क्या यह संभव नहीं कि हम बच्चों को बच्चों की तरह देखें। उनकी बालसुलभ चेष्टाओं पर समय से पहले वयस्क होना न थोपें! हम उन्हें एक स्वतंत्र व्यक्ति के रूप देखें तो शायद उनको अपनी सहज संभावनाओं और क्षमताओं के साथ बढ़ने में मदद मिल सकती है।

नगद नारायण कथा-अह्म ब्रह्मास्मि


बेबाक बोलः नगद नारायण कथा-अह्म ब्रह्मास्मि
सत्ता जब ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ की तरह बात करने लगे कि हमें जो ठीक लगे वही करेंगे तो लोकतंत्र का आधार बनी आम जनता के पांव लड़खड़ाने लगते हैं।
आम जनता बनाम सत्ता के रिश्ते को पाश की पंक्तियां उधार लेकर बोलें तो जनता घास की तरह होती है और सत्ता के हर किए-धरे पर उग ही आएगी। लेकिन सत्ता जब ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ की तरह बात करने लगे कि हमें जो ठीक लगे वही करेंगे तो लोकतंत्र का आधार बनी आम जनता के पांव लड़खड़ाने लगते हैं। ज्यां द्रेज ने नोटबंदी से कालेधन पर काबू पाने की कवायद की तुलना खुले झरने के नीचे पोछा लगाने से की है। आज 40वें दिन भी हालात सुधार के नाम पर बस डिजिटल भुगतान की ही सलाह है। नोटबंदी से परेशान जनता और फैसले को जायज बता रही तटस्थ सरकार पर इस बार का बेबाक बोल।
इस साल मैन बुकर प्राइज से पुरस्कृत पॉल बेट्टी की किताब ‘द सेलआउट’ के नायक ‘मी’ को इस बात की खुशफहमी रहती है कि अमेरिकी समाज सबको जीने के लिए समान अवसर उपलब्ध कराता है। नायक को लगता है कि महान अमेरिकी गणराज्य में महज अपनी काबिलियत के जरिए हर आम इनसान अपने सपने पूरे कर सकता है। ‘मी’ के अश्वेत पिता नहीं चाहते थे कि उनका बेटा झूठे सपनों में और भ्रांतियों का शिकार होकर जिए। पिता अपने बेटे को अमेरिकी समाज में व्याप्त विषमताओं के सच का सामना कराने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों में ले गए जहां अश्वेत पिता-पुत्र को नस्लभेदी समाज का जुल्म झेलना पड़ता है। अश्वेत पिता की हत्या हो जाती है और बेटा ‘महान अमेरिकी’ समाज को एक नए नजरिए से देखने लगता है।
‘मी’ की तुलना उस सीमा तक क्या हम अपने देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कर सकते हैं, जिसमें नायक एक खुशफहम सपने का शिकार था? जो लोग अब तक भारत को निहायत निजी स्तर से एक तरह के आदर्शवादी चश्मे से देख रहे हैं, वे मान रहे हैं कि मौजूदा नोटबंदी की नीति का जो भी विरोध कर रहा है, वह बेईमान है।
आठ नवंबर की रात देश की 86 फीसद मुद्रा को चलन से बाहर कर पूरे देश से भ्रष्टाचार मिटाने का दिवास्वप्न दिखाया गया। लेकिन लगता है कि सपना दिखाने वाले ही सो गए हैं। यह ‘द सेलआउट’ के ‘मी’ का सपना है। इस कहानी की विडंबना यह है कि इसमें ‘मी’ की आंखें खोलने वाले पिता की तरह इनकी आंखें खोलने की राह बताने वाला कोई नहीं दिख रहा है? कम से कम इनके ‘अपनों’ में से तो कोई नहीं। कोई भी यह देख सकता है कि इनके सारे ‘अपनों’ ने अपनी आंखें बंद कर ली हैं और वे वही देख रहे हैं, जो दिखाया नहीं, बताया जा रहा है!
भाजपा के शीर्ष नायक से लेकर छोटे नेता तक इस मसले पर इतने असमंजस में हैं कि उन्हें इसे सही ठहराने के लिए ‘राष्टÑवाद’ के अलावा अब तक कोई जुमला नहीं मिला है। हां, इस बीच भाजपा की एक साध्वी मंत्री ने नरेंद्र मोदी की तुलना कार्ल मार्क्स से जरूर कर दी थी। तो यह है नोटबंदी जैसे बेमानी साबित होते सख्त फैसले को लेकर भाजपा नेताओं की दूरदृष्टि। कोई कम उपभोग बनाम साम्यवादी समाज की बात कर रहा है तो कोई नोटबंदी का झंडा उठाए सीमा पर खड़े सैनिकों का हवाला देकर अपनी पीड़ा का बयान करने वालों का मुंह बंद करा देने में जुटा हैं। जनता को देशप्रेम के लड्डू में राष्टÑवाद का अफीम मिला कर सुलाने की कोशिश की जा रही है।
नोटबंदी पर तो अफीम के लड्डू जनता आठ नवंबर की रात से ही खा रही है। पहले दिन इसे शुद्धीकरण से जोड़ा गया, कालेधन के खिलाफ ‘महायज्ञ’ से लेकर ‘धमर्युद्ध’ तक कहा गया। गृह मंत्रालय की ओर से बयान आया कि नोटबंदी के बाद कश्मीर में पत्थर बरसने बंद हो गए… नक्सलियों के हौसले पस्त हैं… पाकिस्तान रो रहा है। मतलब यह कि अगर किसी ने नोटबंदी का विरोध किया तो ये जुमले इस तरह सामने रख दिए जाएंगे कि वह अपराधबोध से ग्रस्त हो जाए। एक खास लहजे में कहा जाएगा कि आप पाकिस्तानपरस्त नहीं हैं, बुरहान वानी के प्रशंसक नहीं हैं और स्टालिनवादी भी नहीं हैं, तो फिर आप नोटबंदी के खिलाफ कैसे हो सकते हैं?
नोटबंदी के लड्डू ने जनता को कैसा स्वाद दिया, वह तो यह बता ही देगी, लेकिन सच है कि इससे शायद सरकार को अपनी कड़वाहट कम करने का मौका मिला। बहुमत वाली सरकार के ढाई साल पूरे हो चुके थे और किसी भी क्षेत्र में कोई उल्लेखनीय हासिल नहीं दिख रहा था। पंजाब और उत्तर प्रदेश से भी जमीनी रिपोर्ट बहुत अच्छी नहीं थी कि आप चुनाव जीत ही जाएंगे। अपनी नाकामियों का ठीकरा मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी पर आखिर कब तक फोड़ा जाता!
सवाल दबाने के तमाम इंतजामों के बावजूद लोग पूछने लगे थे कि बदलने के दावे के बीच देश किसके लिए बदल रहा है! सवाल आक्रोश में तब्दील होने लगा था और अचानक आठ नवंबर की शाम के उस एलान के साथ ही नरेंद्र मोदी ने सारे राजनीतिक दलों का एजंडा हड़प लिया। पांच सौ और हजारी नोट को बंद कर देश में बन और बह रहे विचार की दिशा ही बदल दी। अब सरकार से यह सवाल कहां है कि पिछले एक महीने में पार्टी या सरकार ने शिक्षा के भगवाकरण की दिशा में क्या किया? संघ के हिंदुत्व के एजंडे का क्या हुआ? राष्टÑगान पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर कोई चर्चा नहीं। मंत्रिमंडल की बैठक में ‘फॉलोअर्स’ (सोशल मीडिया) की गिनती हुई या नहीं? पंजाब यात्रा के दौरान मोदी और उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल के बीच कोई तकरार हुई तो क्यों? नोटबंदी के परदे में शायद सारे सवाल दफ्न हो गए या फिर चुपचाप पल और चल रहे हैं।
साधारण लोगों की तस्वीर के साथ विपक्ष संसद के अंदर और बाहर ताकता और कराहता रहा। इससे पहले इस सरकार के पास ऐसा कोई मुद्दा नहीं आया था जो इतने दिनों तक सुर्खियां बटोरता रहा हो और सरकार खुद-ब-खुद इसके हल होने का इंतजार करती रही हो। एक सहजता को गुत्थी में उलझा देने के बाद उसके खुद-ब-खुद सुलझ जाने की उम्मीद..!
लेकिन सच है कि यह मामला हल होता दिख नहीं रहा है। यह तो हो ही नहीं सकता कि प्रधानमंत्री को आठ नवंबर के पहले कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैली सामाजिक और आर्थिक विषमताओं की जानकारी नहीं थी। या वे यहां की बैंकिंग व्यवस्था की खामियों से अनजान थे। इसके बावजूद देश के आम आदमी के नोटों पर पहरा लगा कर भ्रष्टाचार मिटाने का दिवास्वप्न जो उन्होंने देखा, उन्हें नींद से जगाएगा कौन? कौन उन्हें बताएगा कि बिना तंत्र सुधारे एटीएम और बैंकों पर आम लोगों के पैसों की तालाबंदी कर वे समाज का किसी भी तरह से भला नहीं कर रहे हैं? जिसे निशाना बनाने का ढोल जोर-शोर से पीटा गया, क्या सचमुच उन्हें कोई तकलीफ हुई?
माकपा नेता प्रकाश कारत ने हाल ही में अपने एक बहुचर्चित लेख में लिखा था कि भाजपा अभी एक फासीवादी पार्टी नहीं है, हां उसमें फासीवादी होने की प्रवृत्ति दिखती है। मेरा भी यही मानना है कि फासीवादी प्रवृत्ति से फासीवादी होने का इलाज भी इसी जनतंत्र में है। कम से कम संविधान के पन्नों पर अभी हमारे अधिकार सुरक्षित हैं और आप अपने आदेशों को संविधान की वैधानिकता का ओढ़ना ओढ़ कर ही जायज ठहराते हैं। हम अपनी-अपनी तरह से संविधान की व्याख्या कर तो रहे हैं। संविधान की शपथ लेकर राज करने वालों की प्राथमिकता में संविधान के पन्नों पर दर्ज अक्षर-अक्षर को लागू करने की जिम्मेदारी होनी चाहिए।
मेरा यही मानना है कि प्रधानमंत्री संविधान और लोकतांत्रिक रवायतों में यकीन रखते हैं। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि एक्सिस बैंक जैसे निजी बैंकों को देश की गाढ़ी कमाई की पहरेदारी का हक सौंप कर आपने इस ‘महायज्ञ’ के लिए सहकारी बैंकों को क्यों ‘अछूत’ बना कर छोड़ दिया? ग्रामीणों का सहकारी बैंकों से भरोसा उठा कर कई राज्यों को वित्तीय अराजकता की मंझधार में क्यों छोड़ दिया? कारखानों में नोटबंदी के बाद जो कामबंदी जैसे हालात आ गए और दिल्ली जैसे महानगरों में रीढ़ की हड्डी की भूमिका निभा रहे श्रमिक वर्ग जब उलटा पलायन (रिवर्स माइग्रेशन) कर रहे हैं, भारी तादाद में मजदूरों के बेरोजगार हो जाने के बाद भूखे रहने की नौबत आ गई है तो आपने इनके लिए क्या सोचा है?
मेरा सवाल है कि अगर नोटबंदी के बाद मंडप पर बैठी लड़कियों के अभिभावकों की हृदयाघात से मौत हो रही थी तो नितिन गडकरी की बेटी की शादी में कैसे करोड़ों खर्च हुए। हम यह मान लेते हैं कि उनके पास करोड़ों का उजला धन होगा। वे अपने इस धन का ब्योरा तो हम आम जनता के पास रख सकते हैं? हम प्रधानमंत्री की देशभक्ति पर सवाल उठाने की कूव्वत नहीं रखते। उनसे सवाल पूछा जा सकता है, लेकिन उनकी देशभक्ति पर कोई सवाल नहीं। उनके इस फैसले से देश पर जाने-अनजाने क्या असर पड़ा इस पर भी सवाल हो सकता है। फिलहाल फैसले के पीछे की उनकी नीयत पर शक करना अपनी ऊर्जा व्यर्थ करना होगा। हम बात आगे की कर रहे हैं।
समय है कि वे अपने साथियों को भी शुचिता का पाठ पढ़ाएं। तीन महानुभावों नितिन गडकरी, महेश शर्मा और जनार्दन रेड्डी के घरों में हुई शादियों पर विवाद है। मोदी इस समय पार्टी व अपने मूल संगठन में भी कद्दावर हैं। उनकी जुबान से निकला शब्द ही आदेश है। अगर ये तीनों जनता के सामने अपनी सच्चाई पेश करते हैं तो सबसे खुश आम जनता होगी। वही आम जनता जिसके बारे में पाश की पंक्तियां उधार लेकर कहता हूं, ‘मैं घास हूं/मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा’।

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

वर्चस्व का मानस

वर्चस्व का मानस
प्रभुत्व की मानसिकता इंसान को किस कदर संवेदनहीन और आपराधिक बना डालती है उसके उदाहरण हमें अक्सर मिलते रहते हैं। लेकिन पिछले दिनों महिलाओं के खिलाफ हुई कुछ घटनाओं ने मुझे भीतर से झकझोर दिया। ये घटनाएं अपनी पूरी तीव्रता के साथ टीवी चैनलों और अखबारों की सुर्खियां भी बनीं लेकिन उसमें अपनी.अपनी जिम्मेदारी की तलाश नहीं गई। पहली घटना में राजधानी दिल्ली के बुराड़ी इलाके में एक इक्कीस साल के लड़के ने बेरहमी से कैंची के लगातार वार से लड़की की हत्या कर दी। इसी तरह गुड़गांव के एक मेट्रो स्टेशन पर एकतरफा प्यार में पागल एक युवक ने महिला के इनकार करने पर सरेआम चाकू से वार कर उसकी हत्या कर दी। एक अन्य घटना में राजस्थान के अलवर जिले में बेहद क्रूर तरीके से एक महिला की हत्या का मामला सामने आया। युवक ने अपनी पत्नी के चरित्र पर शक के कारण मिट्टी का तेल डाल कर जिंदा जला दिया और फिर चाकू से उसके अंगों के टुकड़े कर शहर के विभिन्न हिस्सों में फेंक दिए।
महिलाओं पर हमले की खबरें आए दिन सुर्खियां बनती रहती हैं। हर रोज महिलाओं को छेड़छाड़ पिटाई अपमान यौन शोषण जैसी हिंसात्मक घटनाओं का सामना करना पड़ता है। कई बार उनके जीवन साथी या परिवार के सदस्य भी उनकी हत्या कर देते हैं। ज्यादातर घटनाओं के बारे में तो पता ही नहीं चलता है क्योंकि कमजोर पृष्ठभूमि की शोषित और प्रताड़ित महिलाएं किसी को इसके बारे में बताने से घबराती हैं। उन्हें डर लगता है कि कहीं ये पितृसत्तात्मक और सामंती मानस वाला समाज उन्हें ही दोषी ठहरा कर और ज्यादा नुकसान न पहुंचाए। मेरे संपर्क की एक महिला ने अपना दुख इन शब्दों में जाहिर किया. आज हालात ये हैं कि घरए समाज में महिलाओं के लिए डर ही उनकी एक ऐसी सखी है जो हर पल उनके साथ रहती है और हिंसा एक ऐसा खतरनाक अजनबी है जो किसी भी वक्तए किसी भी मोड़ सड़क या आम जगह पर उन्हें धर.दबोच सकता है।
सवाल है कि आखिर कोई पुरुष महिला के प्रति इतना हिंसक क्यों हो जाता है। खासतौर पर महिला के महज इनकार करने भर से पुरुष हमलावर क्यों हो जाता है! कोई भी पुरुष महिला को चोट पहुंचाने के लिए अनेक बहाने बना सकता है। मसलनए वह शराब के नशे में था वह अपना आपा खो बैठा या फिर वह महिला इसी लायक है आदि। लेकिन सच यह है कि पुरुष हिंसा का रास्ता केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह केवल इस माध्यम से वह सब प्राप्त कर सकता है जिन्हें वह एक पुरुष होने के कारण अपना हक समझता है। इस घातक मानसिकता का ही परिणाम है कि महिलाओं के खिलाफ छेड़छाड़ बलात्कार दहेज हत्या और यौन हिंसा जैसे अपराधों की संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। यह स्थिति तब है जब देश में महिलाओं को अपराधों के विरुद्ध कानूनी संरक्षण हासिल है।
विडंबना यह है कि समाज में स्वतंत्रता और आधुनिकता के विस्तार के साथ.साथ महिलाओं के प्रति संकीर्णता का भाव भी बढ़ा है। प्राचीन सामाज में ही नहीं बल्कि आधुनिक समाज की दृष्टि में भी महिलाएं केवल वस्तु हैं जिसको थोपी और गढ़ी.बुनी गई तथाकथित नैतिकता की परिधि से बाहर नहीं आना चाहिए। महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा पत्र के मुताबिकए ष्महिलाओं के प्रति हिंसा पुरुषों और महिलाओं के बीच ऐतिहासिक शक्ति की असमानता का प्रकटीकरण हैष् और हिलाओं के प्रति हिंसा एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा महिलाएं पुरुषों की अपेक्षा कमतर स्थिति में धकेल दी जाती हैं।ष् संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने कहा था ष्दुनिया के कोने.कोने में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की जा रही है। हर समाज और हर संस्कृति की महिलाएं इस जुल्म की शिकार हो रही हैं। वे चाहे किसी भी जातिए राष्ट्रए समाज या तबके की क्यों न हों या उनका जन्म चाहे जहां भी हुआ हो वे हिंसा से अछूती नहीं हैं।
मैंने समाज में पुरुषों और महिलाओं के लिए प्रयोग किए जाने वाले शब्दों पर गौर किया तो यही लगा कि पुरुष के लिए निडर मजबूत मर्द ताकतवर तगड़ा सत्ताधारी कठोर हृदय मूंछों वाला और महिलाओं के लिए कोमल बेचारी अबलाए घर बिगाड़ू कमजोर बदचलन झगड़ालू आदि शब्द प्रयोग किए जाते हैं। इनमें से कुछ शब्द तो महिला.पुरुष में प्राकृतिक अंतर के प्रतीक हैं लेकिन ज्यादातर शब्द प्राकृतिक कम सामाजिक ज्यादा हैं। यानी पितृसत्तात्मक समाज ने इन शब्दों और इसके पीछे की अवधारणा को गढ़ा है जबकि असलियत में ये शब्द केवल महिलाओं को कमजोर दिखाने के लिए ही प्रयोग किए जाते हैं। मैं अपने आसपास के अनुभवों के आधार पर कह सकता हूं कि केवल पुरुष ही नहीं बल्कि एक महिला भी बराबर के स्तर पर बुद्धिमान ताकतवर मजबूत और निडर होती है। बस दिक्कत यह है कि अब तक उससे परोक्ष या प्रत्यक्ष तरीके से उसकी ताकत छीनी गई है।

नॉर्वे की नौकरी

नॉर्वे की नौकरी
आप कितने प्रतिशत नौकरी करना चाहेंगे यह सवाल अजीब है पर कोई यहां 13 प्रतिशत कोई 22 प्रतिशत तो कोई 45 फीसदी नौकरी करता है। मुझे तीन स्टाफ की जरूरत थी सात लोग बुलाए गए और सातों को नौकरी दे दी गई। किसी को 33 प्रतिशतए तो किसी को 67 फीसद बांट दिया। यहां की एक रीति है कि अगर आप साक्षात्कार के लिए बुलाए जाएंगे तो महाविकट परिस्थिति में ही आपको मना किया जाएगा। यह और बात है कि कई को बुलाते ही नहीं। दरअसल प्रवासियों को छोड़ दें तो यहां सौ फीसदी नौकरी कोई करना भी नहीं चाहता।
उम्र के साथ कार्य के प्रतिशत घटाते जाते हैं आराम बढ़ाते जाते हैं। लेकिन यह साफ कर दूं कि यह प्रतिशत पक्का है इसके एक.एक मिनट का हिसाब लिया जाएगा। गर आप सिगरेट पीने या कुछ और काम में समय लगाते हैं तो उतना प्रतिशत घटा लें 82 प्रतिशत नौकरी करेंए 18 फीसद सिगरेट फूंकें। आपका वेतन भी प्रतिशत के हिसाब से और टैक्स भी प्रतिशत के हिसाब से कटेगा। मेरे एक मित्र की हाल ही में ऐसी बीमारी निकली जिसकी वजह से वह लंबे समय तक बैठ नहीं सकते। उन्होंने नौकरी नहीं बदली बल्कि 24 फीसदी कार्य.समय घटा लिया। वेतन कुछ खास नहीं घटाए क्योंकि उनका टैक्स भी कम हुआ। और अगर घटा भी तो खुद का बेहतर ख्याल रख पा रहे हैं। ऐसे ही कई लोग बच्चों के ऊंची क्लास में जाने पर भी कुछ प्रतिशत काम घटा लेते हैं। यह प्रणाली अटपटी है पर स्ट्रेस फ्री जिंदगी में सहायक है।

रंग.बिरंगी आशा

रंग.बिरंगी आशा
एक खूबसूरत शेर है. नाउम्मीदी मौत से कहती है अपना काम करध् आस कहती है ठहर खत का जवाब आने को है। हमारे जीवन में जैसी भी स्थितियां आएं सबसे बड़ा सच यही रहता है कि उम्मीद जीवन भर हमारा साथ नहीं छोड़ती। हमारा दैनिक जीवन जितना भी बेरंग होए उम्मीद हमेशा रंग.बिरंगी होती है। एक बार स्वामी विवेकानंद ने युवाओं को संबोधित करते हुए कहा कि कभी भी उम्मीद को न छोड़ए क्योंकि इस संसार में कोई भी यह नहीं बता सकता कि आने वाला कल उसके लिए क्या लाने वाला है अक्सर यह ऐसी चीज लेकर आता है जिसका हम इंतजार कर रहे होते हैं।
नाउम्मीदी का मतलब है हाथ पर हाथ धरकर बैठ जानाए जबकि उम्मीद एक मानसिक.शारीरिक सक्रियता का नाम है। 17वीं सदी के कवि.नाटककार जोसेफ एडीसन ने इसे जीवन की बुनियादी चीज कहा। जोसेफ ने कहा कि जीवन के लिए तीन चीजें जरूरी हैं. एकए कुछ करने के लिए होना दूसरी कुछ प्रेम करने के लिए होना और तीसरीए कुछ उम्मीद करने के लिए होना। आधुनिक तत्व ज्ञानियों ने भी मानना है कि विचार से अधिक विश्वास में शक्ति होती है और जिस चीज का हमें विश्वास हो उसकी हम उम्मीद करते हैं। डेल कारनेगी कहते हैं कि यथास्थितिवाद बहुत से लोगों का स्वभाव बन जाता है। वे अभाव से छुटकारा पाने का प्रयत्न ही नहीं करते। ऐसा स्वभाव धीरे.धीरे शरीर का अंग बन जाता है और उस छोड़ना कठिन हो जाता है। वे कहते हैं कि नाउम्मीदी सबसे पहले साहस और सामथ्र्य को कम करती है और फिर हमारा व्यक्तित्व आशंकित बना डालती है। मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा कि आदमी जंग लगने के लिए पैदा नहीं हुआ। उसे उसकी क्रियाशीलता बनाए रखती है और उम्मीद व सपने उसे वह सब देते हैं जिसके लिए वह दुनिया में आया। यकीनन हमें हर हाल में उम्मीद का दामन थामे रहना चाहिए ऐसे जैसे वह हमारी सांसें हों।

कड़वाहट का सत्य

कड़वाहट का सत्य
मैं एक सेमिनार में थी। एक महिला ने प्रश्न पूछा कि वह एक कंपनी में अधिकारी है, लेकिन जब भी वह लोगों को सच बताती है, तो लोग नाराज हो जाते हैं, उसके खिलाफ हो जाते हैं। ऐसे में, क्या सच नहीं बोलना चाहिए? उसने एक श्लोक कहा- सत्यम ब्रूयात, प्रियम ब्रूयात...। यह श्लोक काफी प्रसिद्ध है, लेकिन इस पर कोई अमल नहीं करता। हर कोई अपने हिसाब से अर्थ निकालता है।
सच से चोट क्यों लगती है? कई कारण हैं। अक्सर आप सच तभी बोलते हैं, जब किसी को चोट पहुंचाना चाहते हैं। फिर कहते हैं, ‘मैं तो स्पष्ट वक्ता हूं।’ आपका बोला हुआ सच अप्रिय नहीं लगेगा, अगर आप कभी-कभी लोगों की सच्ची प्रशंसा भी करेंगे। लोग प्रशंसा तो झूठी करते हैं, लेकिन कड़वा बोलना हो, तो सच बोलते हैं। अगर आपके दुर्भाव से सच निकलता है, तो वह अप्रिय ही लगेगा। लेकिन प्रेम से भी सत्य बोला जा सकता है। तब आपके सच का अंदाज अलग होगा। तब किसी को बुरा नहीं लगेगा। लोग जानेंगे कि उनकी भलाई के लिए बोला जा रहा है।
सच से चोट लगती है, क्योंकि लोगों ने बहुत सा झूठ ओढ़ रखा है, इसलिए सत्य को बहुत कुशलता से कहना पड़ता है। बर्नार्ड शॉ का सुझाव है- ‘आप लोगों को सच बताना चाहते हैं, तो इस तरह बताएं कि लोग हंसे, वरना वे आपको मार डालेंगे।’ कहते हैं मुल्ला नसरुद्दीन को यह कला हासिल थी। मुल्ला हमेशा दूसरों की कमियां दिखाने के लिए खुद पर व्यंग्य करते थे, खुद को बेवकूफ दिखाते थे। उन्होंने अपनी कब्र पर एक दरवाजा बनाने के लिए कहा, जिस पर ताला लगा हो। सिर्फ दरवाजा, कोई दीवार नहीं। वह दिखाना चाहते थे कि मौत में भी आदमी की पकड़ छूटती नहीं। कब्रों को भी ताले में बंद रखना चाहते हैं। जो खुद पर हंसना सीख लेते हैं, उन्हें दूसरों को कोई कड़वाहट नहीं देनी पड़ती।

देखने का तरीका

देखने का तरीका
चीजें कम ही बदलती हैं नजरिया ज्यादा बदलता है। नजर बदलते ही नजारे बदल जाते हैं। आप जैसा बोएंगे वैसा काटेंगे की तरह यह बात भी शाश्वत सत्य है कि जैसा नजरिया होगा चीजें वैसी ही नजर आएंगी।
प्रोफेसर बारबरा फ्रेडरिक्सान नॉर्थ कैरोलीना यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफेसर हैं। वह कहती हैं बड़े नजरिये से चीजों को देखना तय करता है कि आप किसी भी परिस्थिति में तस्वीर के हर पहलू को देखते हैं और आखिर समस्या का हल खोज निकालने में कामयाब होते हैं। वह कहती हैं कि नजरिये को विकसित करने के लिए सबसे जरूरी है. सकारात्मक सोच। दरअसल नजरिया ही यह तय करता है कि किसी स्थिति के केंद्र में क्या है. समस्या या समाधान।
दिक्कत यह है कि ज्यादातर लोगों में सधे हुए नजरिये का अभाव होता है। वे हर चीज को दोआयामी तरीके से देखते हैं। उनके लिए कोई चीज सच है या फिर झूठ। महान फिल्मकार अकीरो कुरोसावा ने इस सच को पहचाना। उनकी फिल्म रशोमोन में सच को कई एंगल से दिखाया गया है। एक ही चीज अलग.अलग तरीके से लोगों का सच हो सकती है। हमें अपने नजरिये को हमेशा परिष्कृत करने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि आप साहित्य पढ़ेंए नए.नए लोगों से मिलेंए नई.नई जगहों पर घूमने निकलें। और भी रास्ते हैं।
एक यह भी है कि आप सामने वाले के नजरिये को सम्मान दें। इससे भी एक नजरिया विकसित होता है।
लेखक इरविन स्टोन ने एक किताब लिखी है.लस्ट फॉर लाइफ। महान चित्रकार विन्सेंट वॉन गॉग के जीवन पर लिखी गई इस किताब में एक जगह कहा गया है. आदमी का व्यवहारए काफी कुछ ड्रॉइंग की तरह होता है आंख का कोण बदलते ही सारा दृश्य बदल जाता है यह बदलाव दृश्य पर नहीं देखने वाले पर निर्भर करता है। यह सच है कि हमारे सामने तरह.तरह की ड्रॉइंग आती.जाती रहती हैं और हम तरह.तरह से चीजों को देखते हैं।

कठिनाइयों के खिलाफ

कठिनाइयों के खिलाफ
उनकी नींद उड़ी हुई थी। वह चिड़चिड़े हो गए थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें दरअसल उनके आगे एक कठिनाई आ गई थी और वह उस परेशानी के अधीनस्थ थे। ब्रिटिश राजनेता व लेखक बेंजामिन डिजरायली कहते थे कि कठिनाई जितनी बड़ी होए उनके आगे मौन साधना सीखो। हड़बड़ाओ मतए शांत हो जाओ। इतने भर से तुम आधी लड़ाई जीत जाओगे। डिजरायली ने यह भी कहा कि किसी कठिनाई की सबसे अहम रणनीति यही होती है कि हम बौखला जाएं और वह अपनी स्थिति अधिक मजबूत कर ले।

यह सच है कि हम कठिनाइयों के आगे अक्सर बौखला जाते हैं। यह बौखलाहट हमारी सोचने.समझने की क्षमता कम कर देती है और हम गलत निर्णय ले लेते हैं। कठिनाइयां लाखों हैंए पर इनसे निकलने के उपाय भी कम नहीं। किसी भी कठिनाई को दूर करने का कर्म तभी सधता हैए जब मस्तिष्क को शांत रखा जाए। काम से भागें नहींए पर मस्तिष्क को विराम देना भी मत भूलें। जब हालात के आगे लड़खड़ाने की स्थिति आएए तो सहजता के साथ खुद को विराम दिया जाना चाहिए।

रवींद्रनाथ टैगोर जब परेशान होते थेए तो प्रकृति के बीच चले जाते। वृक्षों और पहाड़ों के बीच। उनका यह तरीका काफी शानदार था। हम भी इस तरीके को अपनाते हैं पर थोड़ा भिन्न तरीके से। हम साल में एक बार हिल स्टेशन या समुद्र किनारे छुट्टियां मनाने जाते हैं मगर आज के दौर में इतना ही काफी नहीं। हमें मस्तिष्क को रोजाना शांत करने का तरीका सीखना होगा। सक्सेस इज अ स्टेट ऑफ माइंड के लेखक का कहना है कि अगर आपका दिमाग शांत और स्थिर नहीं तो समझिए कि अच्छे अवसर आपके हाथ नहीं आने वाले। आपको बुरे हालात से सामना करना है और सफलता की सीढ़ियां चढ़नी है तो भावनात्मक रूप से भी मजबूत रहना होगा। शांत रहकर बुरे हालात से छुटकारा पाना होगा

परिस्थिति और मनोदशा

परिस्थिति और मनोदशा
बहुत से व्यक्ति परिस्थितियों को दोषी मानते हैं। वे अपनी मनोदशा बदलने के लिए तैयार नहीं होते और अशांति व असंतोष के दावानल में जलते रहते हैं। उनके मन में सदैव दूसरों के प्रति गिला.शिकवा बना रहता है। यदि मिट्टी में घड़ा बनने की योग्यता और संभावना नहीं हो तो कुशल निर्माता भी सफल नहीं होगा। जीवन में परिस्थिति और मनरूस्थितिए दोनों का महत्व है। उत्थान.पतनए सुख.दुख तथा हर्ष.शोक में दोनों साथ.साथ चलते हैं। लेकिन आज के जनमानस पर परिस्थिति का एकांगी प्रभाव दिखता हैए यह उचित नहीं है क्योंकि परिस्थिति की अपेक्षा मनरूस्थिति का महत्व अधिक होता है। उसमें सुधार के बिना शांति और समाधान की दिशा प्राप्त नहीं हो सकती।

स्वामी विवेकानंद जंगल में एक वृक्ष की छाया में खड़े थे। अचानक वहां कुछ बंदर आ गए। स्वामीजी उन्हें देखते ही दौड़ेए तो बंदर भी पीछे दौड़े। वह घबराए नहीं अपितु साहस के साथ बंदरों के सामने खड़े हो गए। अब बंदर भी ठहर गए। उन्होंने इस प्रसंग को जीवन के साथ जोड़ते हुए लिखा.जो परिस्थिति से डरता हैए समस्याओं के बंदर उसे अधिक डराते हैं। जिसका मनोबल ऊंचा होता हैए उसके लिए समस्या स्वयं समाधान बन जाती है।ष् मानव परिस्थितियों और व्यवस्थाओं का स्वामी है। उसकी मानसिक शांति व स्वस्थता के बिना सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था का कोई भी प्रयोग सफल नहीं हो सकता। जहां भी काले धन का वर्चस्व बढ़ा हैए भौतिक सुख.साधन बढ़े हैं वहां नशीले पदार्थों का प्रसार बढ़ा हैए मनोरोग बढ़े हैंए तथा आत्महत्या के आंकड़े भी बढ़े हैं। जिसका मन शांत और प्रसन्न है उसके लिए मार्ग के कांटे भी फूल बन जाते हैं और जिसका मन अशांत हैए उसके लिए सुख भी दुख में बदल जाता है। विलियम फ्रेडरिक एच जूनियर ने कहा कि इस दुनिया में कोई भी महान व्यक्ति नहीं हैए सिर्फ महान चुनौतियां ही हैं जिनका सामान्य व्यक्ति उठकर सामना करते हैं।

धन और समाज

धन और समाज
आजकल हमारे देश में नोटों को लेकर काफी उथल.पुथल चल रही है। जेब में पैसे हैंए जिनकी कोई कीमत नहीं है। कागज के नोट होंए चाहे सोना.चांदी हो या जमीन.जायदाद हमें इनको इकट्ठा करने का बड़ा शौक है। लोग इसी से प्रसन्न होते हैं कि हमारे नाम पर इतना अंबार है। उसका उपयोग करने का ख्याल उन्हें नहीं आता। लेकिन दुनिया के कई देशों में आप जाएं तो वहां संग्रह का इतना पागलपन दिखाई नहीं देता। आखिर धन के बारे में हमारा रवैया इतना अनैसर्गिक क्यों है एक तरफ आध्यात्मिकता की ऊंचाई और दूसरी तरफ धन की इतनी पकड़!

ओशो ने भारतीय मानस के कुछ मार्मिक सूत्र बताए हैं उनको समझना जरूरी है। एकए हमारे धर्मों ने समझाया है कि धन व्यर्थ है मिट्टी है। इससे धन की आकांक्षा तो नहीं छूटीए बल्कि उसके प्रति एक गलत रवैया पैदा हो गया। पूरा देश धन के लिए बीमार हो गया। जिनके पास धन नहीं हैए वे धन के न होने से पीड़ित हैं और जिनके पास धन हैए वे धन के होने से पीड़ित हैं। जिस समाज में धन को इकट्ठा करने वाले लोग पैदा हो जाते हैंए उस समाज की जिंदगी रुग्ण हो जाती है। धन को भोगने वाले लोग चाहिए जो धन को खर्च करते हों जो धन को फैलाते हों। लेकिन अपने यहां आदमी धन इसलिए कमाता है कि उसे तिजोरी में बंद करे। जितना धन तिजोरी में बंद होता है उतना धन समाज के लिए व्यर्थ हो जाता है। धन समाज की रगों में दौड़ता हुआ खून है। यह जितनी तेजी से दौड़ेगा उतना ही उस समाज का आदमी जवान होगा। जहां.जहां खून रुक जाएगा वहीं.वहीं बुढ़ापा शुरू हो जाएगा। यही हालत भारतीय समाज की हो गई है।

पैसे को लेकर एक असुरक्षा.बोध है हमारे लोगों के मन में कि न जाने कल होगा इसलिए आज खर्च मत करो। जबकि पैसा एक ऊर्जा है और इस ऊर्जा को बहते रहना चाहिए।

पुस्तक पढ़ना

पुस्तक पढ़ना
उन्होंने महीनों पहले एक पुस्तक खरीदी थी। सोचा था पढ़ेंगे पर पढ़ नहीं पाए। ऐसा हमेशा होता है। हम किताबें पढ़ नहीं पाते चाहकर भी नहीं। कहां तो किताबें पढ़ने की आदत होनी चाहिए पर न पढ़ने की आदत बन गई है।
दरअसल पढ़ने को मजबूरी और सुरक्षित आर्थिक जीवन का एक जरिया भर मानकर देखा जाता है जबकि दुनिया के ज्यादातर बदलाव वाया पुस्तक ही आते हैं। मशहूर साहित्यकार फ्रेंज काफ्का कहते थे अच्छी पुस्तकें कुल्हाड़े की तरह हमारे अंदर जमे हुए बर्फ के दरिया को तोड़ देने की क्षमता रखती हैं। इनके जरिये बदलाव की शुरुआत होती है। हम तो यह समझते हैं कि हमने बहुत पढ़ लिया। मगर जिस तरह हम रोजाना घर की सफाई के लिए झाड़ू देते हैंए वैसे ही आंखों और मन के ऊपर जमी धूल को झाड़ने के लिए पुस्तकें पढ़ने में एक निरंतरता चाहिए। हम कह सकते हैं कि हमारे पास समय कहां लेकिन यह एक शानदार झूठ है। हम टीवी देखते हैं गप्पें लड़ाते हैं छुट्टियां मनाते हैं पर पुस्तकें नहीं पढ़ते।
द ट्रैजडी ऑफ मिस्टर मॉर्न और लाफ्टर इन द डार्क जैसी पुस्तक को लिखने वाले व्लादिमीर नबोकोव कहते हैं आप समय को लेकर परेशान न होंए बस पढ़ते जाएं। इससे बेहतर तरीके से आप समय को कहीं और खर्च नहीं कर सकते। मनुष्यता और पशुता के बीच का अंतर पुस्तकें ही हैं। महात्मा गांधी ने भी पुस्तकों को बदलाव का खास जरिया माना। उनसे एक बार किसी ने पूछा कि रामायण को सही माना जाए या नहीं इस पर उनका जवाब था. मैं इसे सही या गलत नहीं कह सकता मगर इतना जरूर कह सकता हूं कि इसे पढ़ने से मैं सही हो गया। चाहो तो तुम भी आजमा सकते हो।

सही रास्ता

सही रास्ता
काम अच्छा हो और उसे करने का तरीका भी अच्छा हो यह जरूरी नहीं। हम अक्सर सफल होने के चक्कर में शॉर्टकट ही नहीं ऐसे रास्ते भी अपना लेते हैं जो सामाजिक.नैतिक पैमाने की कसौटी पर फिट नहीं बैठते। कामयाब होने के चक्कर में हम बहुत कुछ भूल जाते हैं। हाउ मैन मेजर्स सक्सेज के लेखक जे स्मॉक कहते हैं कि एक सामान्य व्यक्ति के लिए बेहतर जिंदगी आर्थिक आत्मनिर्भरताए ताकत लोकप्रियता और प्रतिष्ठा जो उसके पास नहीं है और दूसरे के पास है उसे इस बात को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करती है कि दूसरा व्यक्ति सफल है। सफलता एक परदे का काम करती है जो सफल व्यक्ति की सारी बुराइयों को छिपा देती है।

आज साधन की पवित्रता एक बार फिर चर्चा में है क्योंकि आनन.फानन में सफलता हासिल करने की सोच भी समाज पर हावी है। यहां पुलेला गोपीचंद आदर्श कहे जा सकते हैं। उन्होंने वर्षों पहले एक शीतल पेय का विज्ञापन करने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि मैं बतौर खिलाड़ी जानता हूं कि यह पेय सेहत के लिए हानिकारक है। ऐसे में इसे दूसरे लोगों को पीने के लिए प्रोत्साहित नहीं कर सकता। वॉरेन बफेट ने भी इस मसले पर गंभीर बात कही.पैसाए प्रसिद्धि और शक्ति हासिल करने से कई गुना कठिन है अपनी अच्छाइयों को बनाए रखना। जेब में हजारों डॉलर हों लेकिन किसी नेत्रहीन को सड़क पार कराते समय हम दो बार सोचें तो यह सारी संपदा बेकार है। जाहिर है जब भी कोई काम किया जाए तो इस दर्शन को याद रखकर किया जाए कि हमारे विचारों में कार्यों में और व्यवहार में जो कुछ भी अच्छा होता है वह देर.सबेर हमारी ओर पलटकर जरूर वापस आता है।

परंपराओं की जकड़

परंपराओं की जकड़
विंस्टन चर्चिल ने एक बार एक सभा में कहा था कि अगर हर व्यक्ति अपने उद्देश्य के अनुसार अपना मार्ग चुन लेए लेकिन औरों को भी उसी मार्ग पर चलने के लिए बाध्य न करे तो तकरार कम होगी और आत्मावलोकन का भी अवसर मिलेगा। यह उन लोगों के लिए महत्वपूर्ण है जो बने बनाए ढर्रे और नियमों पर चलने के लिए अपने बच्चों को बाध्य करते हैं। नियम इसलिए होते हैं कि अनुशासन के साथ हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें। मगर जब नियमों का अनुसरण करना ही लक्ष्य बन जाएए तो किसी दूसरे लक्ष्य तक पहुंचना कठिन हो जाता है। हरेक समाज में कुछ ऐसे नियम होते हैंए जिनका पालन एक सुगठित समाज के लिए आवश्यक है।
नियम जब रूढ़ि में बदल जाए तब उसे मिटा देना ही श्रेयस्कर है। शादी.विवाह के दौरान अक्सर ऐसे पारंपरिक अनुष्ठान किए जाते हैंए जिनमें समय की बर्बादी के साथ फिजूलखर्ची भी होती है। इन्हें किसने बनायाघ् कब बनायाघ् क्यों बनायाघ् यह हम नहीं जानतेए पर पीढ़ी दर पीढ़ी उनका निर्वहन करते आ रहे हैं। पिछले दिनों एक विवाह समारोह में जाना हुआ। बारात पहुंचने का तयशुदा समय निकला जा रहा था। मेहमान ऊबकर वापस लौट गए। देरी की वजह थी कि दूल्हे को आम के पेड़ के नीचे कुछ रस्में निभानी थीं और उस पूरे इलाके में कहीं आम का पेड़ नहीं था। चर्चित दार्शनिक कंफ्यूशियस ने जीवन को लचीला बनाने वाले तत्वों पर बल देते हुए कहा है कि जो लोग समय और परिस्थिति के अनुसार अपने को ढालते हैंए वे सबसे सुखी लोग हैं। क्या आप आम का पेड़ ढूंढ़ने वाले असंतुष्ट बनना चाहते हैं या इसके आगे बढ़कर सुख हासिल करना चाहते हैं।

सच्चा प्रेमी

सच्चा प्रेमी


प्रेम एक वरदान की तरह है, लेकिन तभी, जब आप सही मायने में प्रेमी हों। सच्चा प्रेमी का मतलब है, जो प्रेम को देय समझे, न कि इसे पाने का पर्याय मान बैठे। दरअसल, प्रेम में देना ही पाना होता है। अमेरिका की मशहूर कवयित्री डोरोथी पार्कर का कहना है कि प्रेमी वही है, जो प्रेम का मर्म समझता है। डोरोथी के मुताबिक, प्रेम हथेली पर रखे पारे की तरह है, मुट्ठी खुली होने पर वह रहता है और भींचने पर निकल जाता है। यह दुनिया उन्हीं की है, जिन्होंने इसे खुली हथेली पर रखा। ज्यादातर लोग इस गफलत में जीवन गुजार देते हैं कि वे प्रेम में डूबे रहे, लेकिन होते हैं वे महज उसके मोहपाश में। वे अपने प्रिय को अपने पास ही रखना चाहते हैं। चाहे जैसे भी हो।
यहां खलील जिब्रान की बात याद आती है- ‘आप किसी से प्रेम करते हैं, तो उसे जाने दें, क्योंकि वह लौटता है, तो आपका है और यदि नहीं आता, तो फिर आपका था ही नहीं।’प्रेम में होना जीवन को उसके भरपूर सौंदर्य से पहचानना है। प्रेमी का मतलब विश्वासी होना है। प्रेमी का उत्कट मूल्य अगर कुछ है, तो वह है स्वतंत्रता। यह अधिकार जताने का उत्कट विरोधी है। ओशो ने प्रेम पर काफी कुछ लिखा है। एक जगह वह लिखते हैं-‘जहां मैं और मेरा शुरू हो जाता है, वहां यह डर आ घेरता है कि कोई और मालिक न हो जाए। इसके बाद तो ईष्र्या शुरू हो गई, भय शुरू हो गया, घबराहट शुरू हो गई, चिंता शुरू हो गई, पहरेदारी शुरू हो गई। और ये सारे मिलकर प्रेम की हत्या कर देते हैं।’ जाहिर है, मैं और मेरा हमें प्रेमी नहीं रहने देते। ये हमें प्रेमहंता बना देते हैं।

सोच और धारणा को नियंत्रित करती डिजिटल दुनिया

सोच और धारणा को नियंत्रित करती डिजिटल दुनिया

ब्रेट फ्रिचमैन विजिटिंग प्रोफेसर प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी
गूगल कंपनी की जबसे शुरुआत हुई है तभी से इसके सर्च इंजन की प्रक्रिया में पारदर्शिता की कमी विद्वानों के बीच चिंता का विषय रही है। स्वचालित कार स्मार्टफोन और सर्वव्यापी ईमेल के क्षेत्र में उतरने के बहुत पहले से गूगल से यह पूछा जाता रहा है कि वह उन सिद्धांतों और विचारधाराओं की व्याख्या करे जिनके आधार पर वह यह तय करती है कि सूचनाएं किस रूप में हम तक पहुंचें और आज 10 साल बाद यह साफ महसूस किया जा रहा है कि वेब पर परोसी जाने वाली लापरवाह व्यक्तिपरक और भड़काऊ झूठी सूचनाओं का जो असर पड़ रहा हैए डिजिटल युग में वैसा पहले कभी नहीं हुआ।

गूगल ने इस हफ्ते कुछ झिझक के साथ नकारात्मक सामग्रियों की बात भी मानी और कुछ आक्रामक ष्ऑटो.सजेस्ट परिणामों को खास सर्च नतीजों से बाहर भी किया। जैसे गूगल में जू आर टाइप करते ही सर्च इंजन अपनी तरफ से जोड़ देता था. जू आर एविल। इससे पहले कि यूजर आगे किसी दक्षिणपंथी यहूदी विरोधी वेबसाइट का लिंक टाइप करता इसमें एविल शब्द अपने आप सामने आ जाता था। यह वेबसाइट ;गूगल बुरी खबरों बल्कि यहां तक कि व्यंग्य और झूठी खबरों के बीच कोई फर्क नहीं कर पाती। फेसबुक वेबसाइट उस समस्या के समाधान में जुट गई है जिसके पैदा होने में वह भागीदार है। फिर भी मीडिया साक्षरता को प्रोत्साहित करने में या यूजर्स में यह विवेकपूर्ण समझ विकसित करने के लिए कि वे जो पढ़ और साझा कर रहे हैं उससे क्या.क्या समस्याएं पैदा हो सकती हैंए फेसबुक कंपनी अपने विशाल संसाधनों का इस्तेमाल करने की बजाय एल्गोरिथम.पद्धति वाले हल पर भरोसा कर रही है।

दीर्घकालिक सामाजिक परिणामों के लिहाज से यह अहितकर हो सकता है। जिस बड़े पैमाने पर और जिस प्रभाव क्षमता के साथ फेसबुक काम करती है उसका सीधा.सा अर्थ है कि यह वेबसाइट अपने यूजर्स को प्रभावशाली तरीके से इस बात के लिए तैयार करती है कि वे अपने फैसले एक कंप्यूटरीकृत विकल्प से आउटसोर्स करें। और वह 21वीं सदी के डिजिटल कौशल को हासिल करने के मौके बहुत कम उपलब्ध कराती है। तकनीक कैसे हमारे रिश्तों और विश्वास को आकार देने लगी है इस डिजिटल कौशल को समझने के लिए फेसबुक कोई खास मौके नहीं दे रही। फेसबुकए गूगल और दूसरी साइटों द्वारा डिजाइन किए गए वातावरण ने हमें सार्थक बौद्धिक रास्तों से दूर किया है। हम अपनी मूर्खता या आलसीपने में झूठी खबरों पर यकीन नहीं करते हमने उसी पर विश्वास किया जिस पर भरोसा करने की ओर हमें प्रवृत्त किया गया।

पिछले दशक में उभरा इन्फो.मीडिया परिवेश लोगों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करता है कि वहां जो सामग्री परोसी जा रही है उसे वे बगैर विमर्श के स्वीकार कर लें। खासकर जब यह किसी ऐसे शख्स द्वारा प्रस्तुत की गई होए जिस पर हम भरोसा करते हैं या वह विश्वसनीय खबरों के इर्द.गिर्द हो। दोस्तों में प्रसारित होने वाली सूचना में अंतर्निहित मूल्य होता है जिसका दोहन फेसबुक करती हैए लेकिन यह झूठी सूचनाओं के प्रसार को गति दे देती है जैसे अच्छी सामग्रियों के मामले में भी होता है।

सूचना के हरेक टुकड़े को हमें समान रूप से परखना चाहिए। हमारे समक्ष निपटाने के लिए आज काफी सूचनाएं हैं। पहले ऐसा नहीं था। लेकिन हम एक निष्क्रिय आत्म.संतोष के शिकार बन रहे हैं। हम निष्क्रिय नियंत्रित हो सकने वाले इंसान के रूप में तराशे जाने लगे हैं। एक उदार लोकतंत्र के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम अच्छी तरह से समझें कि किस तरह ये ताकतवर वेबसाइटें हमारे सोचने.समझने के तरीकोंए आचार.व्यवहार को बदल रही हैं लोकतंत्र सिर्फ सूचनाओं से लैस नागरिकों पर निर्भर नहीं रह सकता उसे ऐसे नागरिकों की जरूरत होती है जो विचारशील हों और स्वतंत्र राय रखते हों।

यह क्षमता एक मानसिक ताकत है इसका बार.बार इस्तेमाल ही इसे मजबूत बनाती है। और जब हम लंबे वक्त तक एक ऐसी जगह पर कायम रहते हैं जो विवेकशील सोच को जान.बूझकर हतोत्साहित करती है तो हम इस क्षमता को मजबूत करने का अवसर गंवा देते हैं।

हाशिये पर अदृश्य हो गए लोग

हाशिये पर अदृश्य हो गए लोग
 हमारे लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की जीत या हार की संभावना का अनुमान राजनीतिक विश्लेषक या मीडिया आमतौर पर इस आधार पर लगाता है कि किस दल के ष्बेस वोटष् से जुड़ी जातियों की संख्या किस क्षेत्र में कितना प्रतिशत है। आमतौर पर ऐसे विश्लेषणों में जातियों और समुदायों को एक ष्होमोजीनियस वोट बैंक के रूप में देखा जाता हैए जो वे अक्सर नहीं होती हैं। एक ही समुदाय के भीतर कई तरह की चीजें काम करती हैं और लोग अलग.अलग तरह से वोट डालते हैं। कई बार अस्मिता की उग्र चाह और सत्ता में भागीदारी की आकांक्षा के कारण दलितों और पिछड़ों में प्रभावी जातियों की एक बड़ी संख्या एक साथ किसी एक पार्टी के पक्ष में वोट करती हैंए लेकिन उनमें ही छोटी संख्या वाली अति उपेक्षित और अति पिछड़ी अनेक जातियांए जो ज्यादातर बिखरी हुई होती हैंए अलग.अलग कारणों से अलग वोट करती हैं।

उत्तर प्रदेश के संदर्भ में अगर देखेंए तो दलितों की आबादी 21 प्रतिशत हैए जिन्हें राजनीतिक व्याख्या में अक्सर बहुजन समाज पार्टी का ष्बेस वोटष् माना जाता है। लेकिन अगर जमीनी सच्चाई को समझने का प्रयास करेंए तो इनमें जाटव जाति ही बसपा का बेस वोट हैए पासी धोबी कोरी खटिक भी कई बार दलित वोट बैंक या ष्बहुजनिया वोटष् के रूप में इसके पक्ष में मतदान करते दिखाई पड़ते हैं। किंतु उत्तर प्रदेश में लगभग 55 से ज्यादा छोटी संख्या वाली दलित जातियां इधर.उधर बिखरी हुई हैं और किसी अदृश्य समुदाय की तरह हैं। वे स्थानीय स्तर पर प्रभावी दलित पिछड़ी और सवर्ण जातियों के प्रभाव में वोट करती दिखती हैं। इनमें बसोड़ए सपेरे कुच बघिया मुसहर बेगार ततवां रंगरेज सरवन जैसी जातियां हैं।

इनके बारे में कई बार राजनीतिक पार्टियों को या तो पता नहीं होता या पता होने के बावजूद उनकी छोटी व बिखरी हुई जनसंख्या के कारण मतशक्ति को जिताऊ न मानते हुए वे उन पर ज्यादा जोर नहीं देतीं। ये जातियां ज्यादातर दस.बीस घर वाली छोटी बस्तियों में बसी होती हैं या बड़ी बहुजातीय बस्तियों में महज दो.तीन घरों में पाई जाती हैं। पंचायत चुनाव जैसे छोटे चुनाव में इनके वोट अक्सर महत्वपूर्ण हो जाते हैंए पर विधानसभा व लोकसभा के चुनावों में राजनीतिक दल इनको बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानते। बसपा जैसी दलित व बहुजन की राजनीति करने वाली पार्टी भी इन्हें लेकर अक्सर अश्वस्त रहती हैंए यानी ष्टेकन फॉर ग्रांटेडष् लेते हुए इन्हें अपने राजनीतिक अभियान में ज्यादा महत्व नहीं देतीं। न इन जातियों के उम्मीदवारों को टिकट दिया जाता हैए न ही इन्हें राजनीतिक सहभागिता दी जाती है।

ऐसी जातियां भारतीय लोकतंत्र में ष्अदृश्य सामाजिक समूहष् के रूप में जी रही होती हैं। आज भारतीय आजादी के लगभग 70 वर्ष बाद भी न तो ये हमारी राजनीतिक समाज का हिस्सा बन पाई हैं और न ही इन्हें ष्सबॉल्टर्न सिटिजनष् के रूप में पहचान मिली है। ये दलित और बहुजन तो हैंए पर दलित और बहुजन के नाम पर हो रही राजनीति में न के बराबर हैं। सरकार के जरिये संसाधनों और कल्याणकारी योजनाओं का जो वितरण गरीब व पिछड़े समूहों में किया जा रहा हैए वह भी इन तक बूंद जितना पहुंचता है। इन जातियों में न कोई इनका अपना राजनीतिक नेतृत्व उभरा हैए और न ही किसी अन्य राजनीतिक दल ने इन्हें अपने नेतृत्व में जगह दी है। इनके बीच शिक्षा न के बराबर पहुंची है। आर्थिक रूप से बेहद कमजोर इन समूहों के लोग अपनी राजनीति नहीं विकसित कर पा रहेए क्योंकि राजनीति के लिए जाति और समुदाय में आर्थिक रूप से एक सबल समूह का उभरना जरूरी है।

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इनके बीच काम शुरू किया है। गोरखपुर से बहराइच तक फैले उत्तर प्रदेश.नेपाल सीमा के गांवोंए वाराणसी के आस.पास के कुछ क्षेत्रों और अवध क्षेत्र में संघ अपने समरसता कार्यक्रमों को इन तक फैला रहा है। इनकी बस्तियों की सफाई इनके साथ संघ कार्यकर्ताओं का सहभोज इनकी बस्तियों में संघ संचालित प्राइमरी स्कूल जैसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। कई जगह तो इनकी बस्तियों से सटे तालाब के किनारे और बगीचों में संघ की शाखाएं भी लगने लगी हैं। संघ इनके बीच से कार्यकर्ता तैयार करने के प्रयास में लगा हैए जो आगे चलकर संघ का इनके साथ सतत संबंध बनाए रख सके। चीजें अगर इसी तरह से आगे बढ़ती रहींए तो भी एक लंबी प्रक्रिया के बाद ही इनके बीच से कोई नेतृत्व उभर सकेगा।

कांग्रेस भी ऐसी छोटी दलित जातियों को अपने से जोड़ना चाहती है। वह गैर.जाटव दलित जातियों को अपनी राजनीति में जगह देना चाहती है। लेकिन जहां उसे समझ में आता है कि इनकी जाति की वोट संख्या बहुत कम हैए और ये जिताऊ साबित नहीं होंगेए वहीं उनकी राजनीतिक भागीदारी सीमित कर दी जाती है। राजनीतिक दलों की चिंता उन्हें अपने साथ मतदाता के रूप में जोड़ने की तो रहती हैए मगर उनका अपना नेतृत्व विकसित होए उन्हें सत्ता में भागीदारी मिलेए ऐसी दीर्घकालीन योजना इस राजनीति में नहीं दिखती। बसपा के नेता यह कहते हैं कि हम इन्हें अपने साथ जोड़ते हैंए ये हमारे बहुजन समाज का हिस्सा हैंए पर बहुजन राजनीति में भी उन्हें भागीदारी देने का प्रयास न के बराबर दिखाई पड़ता है।

हमारी राजनीति की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि उसमें लोगों का राजनीतिक मूल्य उनकी जाति की संख्या और चुनाव में जीत पाने के उसके धन बल और बाहुबल से तय होता है। इसके कारण अब भी हमारा लोकतंत्र शक्तिवानों का खेल बनकर रह गया है। कांशीराम ने अपनी राजनीति की शुरुआत करते हुए यह सिद्धांत दिया था. ष्जिसकी जितनी संख्या भारीए उसकी उतनी हिस्सेदारीष्। इस सिद्धांत के चलते दलितों में जिन जातियों की संख्या ज्यादा हैए उन्हें तो राजनीतिक सहभागिता कुछ हद तक बहुजन राजनीति के विकास के बाद मिली हैए लेकिन उत्तर प्रदेश के समाज में निवास कर रहे इन 55 से ज्यादा छोटी संख्या वाली दलित व बहुजन जातियों का क्या होगाघ् इस सवाल का जवाब हमें आज नहीं तो कल देना ही होगा।

सीखने की कला

सीखने की कला
कहा जाता है कि हमें अपनी गलतियों से सीखना चाहिए। यानी पिछली गलतियों से सबक लेकर आगे की राह में बचा जा सकता है। महात्मा गांधी कहते हैं कि मनुष्य को गलती करने की आजादी होनी चाहिए ताकि वह नए मार्ग तलाश सके। वह पिछली गलतियों से सीखेगा तभी सफल हो पाएगा। जॉन पॉवेल तो यहां तक कहते हैं कि वास्तविक गलती वह है जिससे हम कुछ भी नहीं सीखते।
लेकिन द पावर ऑफ पॉजिटिव थिंकिंग के लेखक नॉर्मन विंसेट पील इसकी व्याख्या अलग तरीके से करते हैं। वह कहते हैं कि गलतियों से सीखने की प्रवृत्ति एक नकारात्मक धारणा है। गलतियों की बजाय सफलताओं से हमें सीखना चाहिए। जब हम गलतियों से सीखने की बात करते हैं तो हमारा मुख्य ध्येय किसी काम विशेष को न दोहराने या किसी राह विशेष पर न चलने का होता है। यह तरीका सिर्फ बचाव का विकल्प सुझाता है सफलता पाने की राह नहीं दिखाता। हमारी ऊर्जा इस बात पर खर्च हो जाती है कि कैसे गलतियों से बचा जाए इसकी बजाय हमें सफलताओं से सीखना चाहिए। यह लक्ष्य प्राप्ति के प्रयास में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है। साथ ही सफल मार्गों का अनुसरण खुद ही गलतियों से बचा देता है। सकारात्मक सोच सदैव सफलता के मार्ग में हौसला बढ़ाती है। इसलिए यही सबसे अच्छा रास्ता है।
ये दोनों विचार अपने.अपने दृष्टिकोण से उचित हैं। जब हम गलतियों से सीख रहे होते हैं तब हम दरअसल सफलता के नए मार्ग ही तलाश रहे होते हैं। अमेरिकी दार्शनिक व शिक्षाविद जॉन दवे कहते हैं कि वास्तविक चिंतनशील व्यक्ति वही है जो अपनी असफलता से भी उतना ही सीखता हैए जितना सफलता से।

साइबर खतरे

साइबर खतरे की सबसे बड़ी दस्तक
विजय माल्या से लेकर राहुल गांधी बरखा दत्त और रवीश कुमार के ट्विटर व अन्य खातों का हैक हो जाना फिलहाल भले ही चर्चा में हो लेकिन यह एक ऐसा मसला है जिसे जल्द ही हम भुला देंगे। हालांकि इस मामले में भी बहुत कुछ है जो समझ में आने वाला नहीं है। यह सवाल तो खैर अपनी जगह है ही कि एक खास राजनीतिक रुझान के लोगों को लीजियान नाम के हैकर समूह ने निशाना क्यों बनायाघ् लीजियान नाम अमेरिका के कुख्यात ष्लीजियान ऑफ डूमष् हैकर समूह की याद दिलाता है जो कभी दुनिया की मशहूर शख्सियतों के अकाउंट हैक करके चर्चा में आया था। लेकिन जो लीजियान हमारे सामने है उसका कोई पुराना रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है। वैसे हैकिंग की दुनिया में यह महत्वपूर्ण भी नहीं होता क्योंकि आमतौर पर यह ऐसा काम है जिसे दुनिया भर में नौजवान ही अंजाम देते हैं। हालांकि यह बात उन ताकतों के बारे में नहीं कही जा सकतीए जो कभी.कभार इनके पीछे सक्रिय होती हैं। हम इतना भर जानते हैं कि इस संगठन का निशाना भारत विशेष है। दुनिया भर में यह माना जाता है कि ऐसे संगठनों के दावे चाहे जितने भी हवाई क्यों न दिखें उन्हें कभी हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।

वैसे लीजियान हैकर समूह से जुड़ी कुछ पहेलियां और भी हैं जो समझ में नहीं आती हैं। पहली तो यही कि इस समूह का नाम लीजियान क्यों रखा गया यह बाइबिल की परंपरा से निकला शब्द है जिसका अर्थ होता है रोमन सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी। पिछले दो.तीन दिनों में इस समूह के कुछ सदस्यों के इंटरव्यू कई जगह प्रकाशित हुए हैं। ऐसे ही एक इंटरव्यू में जब यह पूछा गया कि समूह का नाम लीजियान क्यों रखा गया तो उसका कोई ठीक जवाब नहीं मिला। कुछ समय पहले तक पूरी दुनिया के कंप्यूटर जगत पर ष्लीजियान ऑफ डूम का खौफ हुआ करता था। संभव है कि इसी खौफ का कुछ एहसास देने के लिए इस संगठन का नाम लीजियान रखा गया हो। वैसे माना जाता है कि जियान ऑफ डूम का नाम 70 के दशक के एक कार्टून सीरियल से लिया गया था। अपने इंटरव्यू में समूह के इन सदस्यों ने जो बातें कही हैं वे बताती हैं कि इन नौजवानों ने नाम ही नहीं कई और चीजें भी पश्चिम के हैकर संगठनों से उधार ली हैं। जैसे वे अपने बारे में बताते हैं कि वे ड्रग एडिक्ट और अपराधी हैं। दुनिया भर के हैकरों को हमेशा इसी तरह चित्रित किया जाता रहा है जो शायद कुछ हद तक सच भी है। ऐसा सोचने का एक कारण यह भी है कि तमाम हैकर और नशीली चीजों का इस्तेमाल करने वाले उसी अंधेरे तहखाने में सक्रिय रहते हैं जिसे डार्कनेट कहा जाता है। ऐसा ही एक और जवाब चौंकाता है। पूछा गया कि आपकी विचारधारा क्या है तो जवाब मिला कि हम अराजकतावादी एनार्किस्ट हैं। इस जवाब पर हैरत इसलिए होती है कि किसी अराजकतावादी का पहला निशाना रवीश कुमार या बरखा दत्त तो नहीं ही हो सकते।

पूरे मामले को यदि इन लोगों और उनके जवाबों से अलग करके देखें तो खतरा सामने खड़ा है और वह अभी तक जो हुआए उससे कहीं ज्यादा बड़ा है। पहली बार प्रोफेशनल हैकिंग ने भारत में दस्तक दी है। छिटपुट घटनाओं और पाकिस्तानी हैकरों की छोटी.मोटी व बचकानी हरकतों को छोड़ दें तो देश के नेटवर्क काफी हद तक इससे बचे रहे हैं। कुछ समय पहले कुछ बैंकों के डाटाबेस का चोरी हो जाना शायद इस तरह की सबसे बड़ी घटना माना जा सकता है जिससे पार पाने के लिए कई भारतीय बैंक हाल.फिलहाल तक जूझते दिखाई दिए थे। पहली बार हमारा सामना एक ऐसे हैकर समूह से हो रहा है जो न सिर्फ पश्चिम के शातिर हैकर संगठनों से प्रेरणा ले रहा है बल्कि उनके नक्शे कदम पर चलता हुआ दिखाई दे रहा है। सबसे बड़ी बात है कि यह सब उस समय हो रहा है जब हम कैशलेस होने की तरफ बढ़ रहे हैं। कुछ मजबूरी में कुछ सरकार के आग्रह पर और कुछ पूरी दुनिया के साथ कदम मिलाने की कोशिश में। इन दिनों ऐसे कार.व्यापार के आग्रह बहुत बढ़ गए हैं जिसमें नकदी का लेन.देन कम हो और कंप्यूटर नेटवर्क के जरिये सारा पैसा एक खाते से दूसरे में चला जाए। ऐसे मौके पर लीजियान हमें बता रहा है कि उसके लोग देश के सभी बैंकों के सर्वर में सेंध लगा चुके हैं। इस दावे में कितनी सच्चाई है यह हम नहीं जानते लेकिन हमारे उन सभी खातों पर खतरा तो मंडरा ही रहा है जिन्हें हम अपनी जेब का बटुआ बनाने की तैयारी कर रहे हैं।
वैसे यह हमारा ही नहीं पूरी दुनिया का खतरा है। दुनिया भर की सरकारें और बैंक अपने.अपने तरीके से इससे जूझ भी रहे हैं। बैंक और वित्तीय संस्थान इससे बचने के लिए साइबर सुरक्षा में भारी निवेश भी कर रहे हैंए हालांकि भारतीय बैंक और वित्तीय संस्थान इस मामले में काफी पीछे हैं। लीजियान की दस्तक बताती है कि कैशलेस होने से कहीं बड़ी प्राथमिकता इस समय लोगों की जमापूंजी को साइबर खतरों से बचाने की है।

दुनिया भर में यह भी माना जाता है कि लोगों के धन को हमेशा के लिए पूरी तरह सुरक्षित करना संभव नहीं है। किसी भी तरह की सुरक्षा दीवार में हैकर सेंध लगा ही लेते हैं। ऐसी सेंध की स्थिति में क्या होगा इसके स्पष्ट नियम बनाने की जरूरत है। ज्यादातर विकसित देशों में प्रोटोकॉल यह है कि अगर बैंक के सर्वर में सेंध लगती है और किसी के खाते से धन निकल जाता है तो नुकसान की भरपायी बैंक को करनी होगीए क्योंकि इसमें खातेदार की कोई गलती नहीं है। हमारे यहां ये नियम बहुत साफ नहीं हैं इसलिए ऐसे मौकों पर बैंक सारी जिम्मेदारी खातेदार पर ही डाल देते हैं। कैशलेस होने के साथ ही हमें अब ऐसे बहुत सारे नियम.कायदे बनाने और स्पष्ट करने होंगे।

जहां तक लीजियान का मामला है ऐसे संगठनों को दुनिया भर में कंप्यूटर क्रांति का सह.उत्पाद माना जाता हैए जो अंत में सभी को सुरक्षा के प्रति गंभीर होने की मजबूरी देता है। यह ठीक है कि लीजियान ने जो कियाए उसमें एक राजनीतिक रुझान देखा जा सकता हैए पर पूरा मामला यही बताता है कि अब कोई निरापद नहीं है भले ही उसका रुझान कुछ भी हो या उसके खाते में कितना भी धन हो।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

सम्मान का हकदार

सम्मान का हकदार
एक समय ऐसा आया जब दुनिया को जीतने की इच्छा रखने वाला नेपोलियन हेलना द्वीप में एक जेल में पहुंचा दिया गया। वहां वह एक दिन सुबह सैर के लिए निकला। सामने पगडंडी पर एक घास काटने वाली औरत आती दिखाई दी। नेपोलियन के साथ चल रहे लोगों ने उसे रास्ता छोड़ देने के लिए कहा लेकिन उसने अनसुना कर दिया। अंतत नेपोलियन को ही पगडंडी से उतरना पड़ा। उसके कुछ साल पहले तक क्या कोई इसकी कल्पना भी कर सकता था ऐसी ही स्थिति हिटलर औरंगजेब जैसे तानाशाहों की भी रही है। वहीं दूसरी तरफ भगवान महावीर महात्मा बुद्ध गांधी मार्टिन लूथर किंग हैं जिनकी तस्वीर को देखकर ही लोग श्रद्धा से सिर झुका लेते हैं।
फर्क यह है कि एक ने इतिहास को रक्त.रंजित कर धरती पर साम्राज्य कायम करने की कोशिश की और दूसरे ने अहिंसा से हर किसी के मन पर अपनी जगह बनाने की कोशिश की। एक ने भय को अपना हथियार बनायाए जबकि दूसरे ने अभय का संदेश दिया। बुद्ध हो या गांधी इन सबने पहले खुद को अपना मित्र बनाया। खुद को जीता। तीर्थंकर महावीर कहते हैं कि जो अपना मित्र बन जाता है उसका कोई शत्रु होता ही नहीं। इसमें स्वयं को जीतने का संघर्ष है। लेकिन हमारे जीवन का सबसे बड़ा रोड़ा है अति महात्वाकांक्षी होना। उस अति महात्वाकांक्षी के पास अगर ज्ञान का अभाव होए तो वह गलत रास्ता चुनने में परहेज नहीं करता है। नेपोलियन और हिटलर के पास शक्ति थी मगर ज्ञान और धैर्य का अभाव था। जबकि गांधी लूथर आदि के पास ज्ञानए धैर्य साहस सब कुछ था। सम्मान के हकदार वही हुए हैं जिनके जीवन पर अच्छे विचारों की छाया रही है।

धैर्य यानी ध्यान

धैर्य यानी ध्यान
एनीमल प्लैनेट पर वह एक कार्यक्रम देख रहे थे। देखा कि एक अजगर भूख से परेशान था। पूरे तीन दिनों तक उसने घात लगायाए आखिर एक सूअर आहार बना। अजगर को धैर्य ने बचाया। धैर्य अजगर और बगुले ही नहीं हमारी भी पहचान हैए भले हम इसकी अनदेखी करें। हेनरी एच अर्नोल्ड द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी एयर फोर्स के प्रमुख थे। वह कहते थे. कोई भी मुर्गी अंडे से चूजा पाने के लिए उसे तोड़ती नहींए बल्कि उसको सेती है। उन्होंने जो कामयाबी हासिल की उसमें 25 प्रतिशत हाथ प्रयत्न का और 75 प्रतिशत हाथ धैर्य का मानते थे।
आजकल हमारे प्रयत्न की मात्रा तो बढ़ी है मगर उस अनुपात में धैर्य घटता गया। परेशानी कोई भी हो आप उससे केवल इसलिए आसानी से पार पा सकते हैं कि आप हड़बड़ी में नहीं हैं और ठहरकर चीजों पर गौर कर सकते हैं। धैर्य सफलता की गारंटी नहीं देता लेकिन यह गारंटी जरूर देता है कि असफलता से पार पाने के कई आसान रास्ते हैंए जिन पर चलकर आप सौ फीसदी मनचाहा हासिल कर सकते हैं। मनोवैज्ञानिक पीयरे विल्सन इसे ध्यान का ही एक रूप मानते हैं. एक ऐसा ध्यानए जो आपके हर काम में निहित है। यही वह ध्यान हैए जो आपके दिमाग में सुकून भरता है। ऐसा नहीं कि धैर्य के नाम पर आप अपनी मनमानी करने में जुट जाएं। किन हब्बार्ड जो कि अमेरिका के महान पत्रकारों और कार्टूनिस्टों में से एक हैं यह कहते थे कि धैर्य शब्द के साथ बड़ा खिलवाड़ होता है। अक्सर उत्साह की कमी को धैर्य मान लिया जाता है। उत्साहहीनए आलसी लोग धैर्य रखने के नाम पर ही हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते हैं जो गलत है।

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

सोच की बात

सोच की बात
उनके पास शिकायतें ही शिकायतें हैं। कोई दूर करे भी कैसे एक दूर होती नहीं कि दूसरी पैदा हो जाती है। दोष स्थितियों का नहीं है। नजरिये में समस्या है।नजरिया सही हो तो प्रतिकूल से प्रतिकूल स्थितियां भी आपको हताश नहीं कर सकतीं बल्कि यह जीने के मकसद को बनाए रखती है। अब्राहम लिंकन एक बात अक्सर कहते थे. हम शिकायत कर सकते हैं कि गुलाब के फूल में कांटे हैं और हम खुश भी हो सकते हैं कि कांटों में फूल है। ज्यादातर सफल लोगों के पास एक शानदार नजरिया होता हैए लेकिन ऐसे लोगों में वारेन बफेट तो बेमिसाल हैं। वह ज्यों.ज्यों पैसे कमाते गए उनका जिंदगी के प्रति नजरिया और निखरता गया। आज वह कहते हैं.  यूं तो अमीर होने में कोई खासी परेशानी नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मैं इन कागज के टुकड़ों को खुद पर खर्च नहीं कर सकता। अगर मैं चाहूं तो सिर्फ 10 हजार लोग सुबह.शाम अपनी तस्वीरें खिंचवाने के लिए रख सकता हूंए लेकिन इससे किसी का भला नहीं होगा।ष् यह उनका कमाल का नजरिया है जो यह संदेश देता है कि अगर एक बच्चा सोच लेए तो चुइंगम बेचने के रास्ते से होता हुआ दुनिया का सबसे अमीर शख्स बन सकता है और अगर वही व्यक्ति चाहेए तो वह अपनी सारी कमाई एक क्षण में दान कर सकता है।आज नजरिये की कीमत काफी ज्यादा आंकी जा रही है। नौकरी देने से पहले यह देखा जा रहा कि हमारा मेंटल फ्रेम वर्क क्या है जानकारी पर विचार को तरजीह दी जा रही। पहनावा.ओढ़ावा केंद्र में नहीं है। अब केंद्र में है तो एटीट्यूड। शिकायतें करने वाला नहीं उसे दूर करने में जुटने वाला माइंससेट।