शनिवार, 17 दिसंबर 2016

दर्द सहने की प्रायोजित चिंता

दर्द सहने की प्रायोजित चिंता का विकास हमारी सुदीर्घ परंपरा में रहा है। हम परंपरा के आदी होने से पहले एक सोपानगत यात्रा तय करके आते हैं। सहनशीलता की अमानुषिक पराकाष्ठा हमें संस्कृतिवाद की घुट्टी के प्रारूप में मिली कि इसका रंग असर करता गया और हम सांस्कृतिक नशे का शिकार हो गए। देश की आधी आबादी जिस रंग-रोगन में डूब कर प्रतिष्ठा के गोते लगा रही है, पर्व और त्योहारों पर भूखों मर कर उपवास के परचम लहरा रही है, नाक-कान छेदा रही है, तरह-तरह की धातुएं ढो रही है, यह सब भी दर्द के हद से गुजरे हुए सांस्कृतिक लक्षण हैं। ढोना हमारी ग्रंथि में शामिल हो चुका है। हमारी आध्यात्मिकता में इसके लबरेज पाखंड नग्नता लिए अभिनंदित होते रहे हैं। असमानता के कठोर आघातों से लहूलुहान हमरी शास्त्रीय दहाड़ लगातार यह बताती आई है, सहने की क्षमता का विकास करो। तुलसी ने भी अपनी मानस वाली किताब में लिखा है कि तप बहुत ऊंची चीज है। इतनी ऊंची चीज कि लगभग खत्म होने के कगार तक खुद को तपाओ।
तुलसी कोई उबीधा बात नहीं कह रहे थे। इस पर हमारे स्वदेशी दर्शन संस्कृत काल से ही दीपक राग गाते आ रहे थे। देश की जनता तप करने में तब इतनी व्यस्त थी, इसके प्रमाण आज इक्कीसवीं सदी के मानव मस्तिष्क की सामाजिक जड़ता में प्रमाणित है। जब भी ऐसे तप होते थे शारीरिक अक्षमताएं बढ़ जाती थीं और देह स्वभावहीन हो जाती थी। भोजन और पानी शरीर की आवश्यक नियमितता के अनुकूल नहीं मिलते थे। शारीरिक और मानसिक रोग जड़ीभूत होते गए, ग्रंथियां बनती गर्इं, संततियां सांस्कृतिक होती गर्इं। माना कि मनुष्य तप करके, शरीर को ठिकाने लगाते हुए अगर शक्ति यानी पदवी पा भी लिया तो यह तय है कि वह स्वाभाविक नहीं रहेगा। मानसिक और शारीरिक कमजोरियां उसे कुंठित जरूर बना देंगी। इन परिघटनाओं से ही हमारी सामाजिकता में जड़ आध्यात्मिकता का विकास हुआ।
आदिम युग से हम शौर्य और शृंगार के ज्वलंत लोभी रहे, हमने समाज में सहजता नहीं बरती। हमारा लोभ कुंठा की संस्कृति रचता गया, जिसे हमारी पुश्तैनी बीमारी सराहते हुए नहीं थकती। हमारी परंपरा इतनी दागी हुई कि जो दिखता है वह झूठ है करारती गई। यह हमारी तपती हुई सच्चाई है। इसी संस्कृति की भांग खाए हमारी संततियां हराम के मिष्ठान्न पर डाका डालने में मशगूल होती गर्इं। शास्त्रीयता के एजेंट इसी पक्ष में अपने दार्शनिक सिद्धांत खड़े करते गए। यह बात सोचने की है कि राजतंत्र में बड़े से बड़े दर्द झेल कर ज्यादातर जनता ऐयाश राजा के खिलाफ बगावत क्यों नहीं करती थी! कारण हमारी व्यवस्था लगातार दर्द सहने के आसान तरीके सीख रही थी। जनता को यहां तक बताया जा चुका था कि कर्म करते रहो फल की इच्छा भी न रखो।
आज बेरोजगारी के दौर में हम तप कर रहे हैं, सिर पीट-पीट कर रट रहे हैं, कागद गोद-गोद कर योग कर रहे हैं। इस लोकतंत्र में हम तपस्या के हठ आसान लगा रहे हैं। तीस से चालीस तक पहुंचते हुए हम खुद को अपराधी करारने वाली जीवन पद्धति में जी रहे हैं। विभागों में स्वीकृत पद भी नहीं भरे जा रहे हैं और हम अपनी कुंठा में आरक्षण पर उपदेश धांगने में महारत हासिल कर रहे हैं। हमारी मानसिकता सत्ता से दर्द सहने की अविकल आदी हो चुकी है। आजकल हमसे कहा जा रहा है आप देश के लिए इतना भी दर्द नहीं सह सकते! क्या हम दर्द को पहचानने लगे हैं? हमें बताया जा रहा है देश के जवान सीमा पर जीरो डिग्री तापमान में बंदूक लिए तैनात हैं और तुम दिन भर बैंक में लाइन लगा कर नहीं खड़े हो सकते! हमें यह पहचानने की जरूरत है कि हमसे यह कौन कह रहा है। यह बहुविकल्पीय प्रश्न नहीं है। इसके जवाब सबको पता हैं। हमें जवाबों से भटकाया जा रहा है। यह रियाज भर है- कुंठा की ओर लौटो, तप की ओर लौटो, पौराणिक जहालत की ओर लौटो। लौटो कि जैसे कुछ नहीं बदला, जैसे तुम दर्द की हद से गुजर चुके हो। लौटो और शहंशाह से कह दो हमें दवा में दर्द चाहिए। कल एक पोस्टर देख रहा था- ‘भक्त को दर्द नहीं होता।’ लेकिन यह बताना आज कितना खतरनाक है।
जो दवा में दर्द मांग रहा हो उसे सहलाना कितना घातक है। हमारा इतिहास इस तथ्य का गवाह है कि जब भी कोई चीजों की वास्तविकता की देख-परख करने वाला बुद्धिमान व्यक्ति जनता के बीच यह कहने की कोशिश करता है, तो सजा पाता है, देशद्रोही करार दिया जाता है। सूली पर टांग दिया जाता है, तेज आग की लपटों के हवाले कर दिया जाता है, हाथियों से कुचलवा दिया जाता है। और जो अपराधों के जंगल में सत्ता का साथ तुकबंदियां करते, चापलूसी में खूंखार की पूंछ सहलाते हैं, हत्यारी हुकूमत में राग मल्हार गाते हैं, दवा में दर्द बेचने का साहित्यिक दावा करते हैं, वे सम्मानित होते हैं। लेकिन सभ्यता के इतिहास में इनके नाम गायब हो जाते हैं।

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