गुरुवार, 16 जून 2016

कैराना बोले तो,,,,,,,

 कैराना बोले तो,,,,,,,
भारत भूषण अरोरा
पलायन एक अनवरत प्रक्रिया है हर जगह हर समय कहीं न कहीं किन्ही न किन्ही कारणों से हो रही होती है। लेकिन जैसे ही इसमें सांप्रदायिकता,जातिवाद अथवा कानून व्यवस्था  का छोंक लगता है तो खबर बन जाती है। कैराने में भी यही हुआ और बडी खबर बन गया। गंभीरता के लिए माने जाने वाले राजनीतिक हुक्मसिंह ने जब पलायन पर इनका छोंक लगाया तो यह बडी खबर तो बनना ही था। लेकिन यह तय है कि उन्होने इसके लिए व्यक्तिगत लाभ हानि का हिसाब जरूर लगा लिया होगा।
अभी तक हम यही पढते आए हैं कि समाजविरोधी तत्वों, लंपटों धूर्तों, बलात्कारियों, चोरों, धोखेबाजों, ठगों, गुंडे और आतंकवादियों की कोई जाति और धर्म नहीं होता। अब शायद हमें कोई यह पढाना चाहता है कि हां इन सबकी जाति और धर्म होता है। एक बार जब हम यह मान लेंगे कि इनकी जाति और धर्म होता है बस फिर क्या फिर तो यही नतीजा होगा कि मेरी जाति व धर्म वाले समाजविरोधी तत्व स्वीकार्य और अच्छे है तुम्हारी जाति और धर्म के ये तत्व खराब है। यह समझ समाज व देश को तोंडने की दिशा में ले जाती है और आदमी की इंसानी समझ मार देती है। तीन ठोस उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है।
विनोद शंकर चौबे जब मुजफफरनगर के जिलाधिकारी थे तो उन्होने एक बार कहा था कि जिला कारागार मुसलमानों और जाटों से भरा पडा है ज्यादातर अपराध इन्ही के द्वारा हो रहा है। उनके इस बयान के बाद वारिष्ठ एडवोकेट ज्ञानकुमार ने उनपर मानहानि का दावा ठोंक दिया था। जरा सोचिये ज्ञानकुमार अगर हुक्मसिंह की समझ के होते तो क्या वे जिलाधिकारी पर मानहानि का दावा ठोंकने का नैतिक साहस कर पाते बिल्कुल नहीं। हां अगर वे हुक्मसिंह की समझ के होते तो उन्हे जाटों के नाम पर तो एतराज होता लेकिन मुसलमानों के नाम पर नहीं। चूंकि वे हुक्मसिंह की समझ के नहीं थे इसलिए उन्हे दोनों के नाम लेने पर एतराज था इसलिए उन्होने दावा ठोका था।
दूसरा उदाहरण मुजफफरनगर के तत्कालीन एसएसपी विजय कुमार का है। बढते अपराधों पर जब उन्हे कुछ राजनीतिक लोग ज्ञापन देने गये तो उन्होने एकदम तमकते हुए कहा कि मुूझे चार राजनेताओं को बंद करना पडेगा जिले से तो क्या पश्चिम उ0 प्र0 से अपराध खत्म हो जायेगा। बोलो मंजूर हो तो हां करो वरना आज के बाद अपराध बढने का ज्ञापन लेकर मत आना प्रतिनिधिमंडल की बोलती बंद हो गयी और मूंह छिपाकर उन्हे वहां से उठना पडा। उन चार नेताओं के नाम नहीं लिख सकता मुजफफरनगर के पाठक अपने आप समझ जायेंगे। हां उन चार राजनेताओं में एक मुसलमान दो ठाकुर व एक जाट नेता था।
तीसरा उदाहरण जानसठ तहसील के एक कस्बे का का है कल्याण सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने थे कस्बे की भाजपा का उत्साह ठाठे मार रहा था उस वक्त सटटे व खाईबाडी का ठेका पुलिस ने 40 हजार मासिक में एक मुसलमान को दे रखा था। उससे पहले यह ठेका किन्ही जैन साहब के पास था। कस्बे की भाजपा को यह ठीक नहीं लगा कि भाजपा की सरकार में एक हिन्दु सटटेवाला बेरोजगार रहे और मुसलमान सटटेबाज की दुकान चले। बस फिर क्या था आनन फानन में भाजपा के एक प्रतिनिधिमंडल ने तत्कालीन एस ओ को मौखिक ज्ञापन दिया कि आप को सटटे का ठेका देना ही है तो किसी हिन्दु को दो वरना इसे बंद कराओ। एस ओ ने उनकी बात ध्यान से सुन कर कहा आप सब लाला लोग हो आपका सम्मान है लेकिन एक बात बताओ कि आप भी सामान उसी को बेचते हो जो ज्यादा दाम दे तो अगर यही काम मैं कर रहा हूं तो आपके क्या एतराज। जैन साहब से अस्सी हजार दिलाओ तो सोचूं। जैन साहब इस पर तैयार नहीं हुए तो ठेका मुसलमान पर रह गया। भाजपा प्रतिनिधिमंडल को वहां से उठना भारी पड गया।
ये तीनों उदाहरण मैं इसलिये दे रहा हूं कि पत्रकारिता जीवन में मैं इन तीनो उदाहरणों का प्रत्यक्ष गवाह रहा हूं। उक्त तीनों  उदाहरण यह समझने के लिये काफी हैं कि एक बार अगर समाज की समझ हुक्मसिंह या कस्बे की भाजपा जैसी बन गयी कि बदमाशों की कोई जाति या धर्म होता है तो फिर कैसे भारत का निर्माण होगा सोचकर ही डर लगता है। वरिष्ठ एडवोकेट ज्ञानकुमार की समझ ही ठीक है कि समाजविरोधी तत्वों की कोई जाति नहीं होती। इसी समझ को बनाए रखने की आज बडी जरूरत है। वरना जैसी समझ हुक्मसिंह या उनकी पाठशाला के शिक्षक बनाना चाहते है वह खुद भारत को विकास की राह से भटका देगी। और हिन्दुस्तान को अंधेरी गलियों में ढकेल देगी।

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