गुरुवार, 23 जून 2016

जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन

जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन
भारत भूषण अरोरा
बहुत दिनों से सांप्रदायिकता के स्रोत को जानना चाह रहा था कि आखिर ये दिल और दिमाग में प्रवेश कहां से करती है। जबकि इसको मिटाने के लिए महात्मा बुध, कबीरदास, गुरू नानक, बुल्लेशाह, सूफी आन्दोलन, संत रविदास और न जाने कितने महापुरूष जो कि इंसानियत का संदेश देकर दुनियां से चले गये। लेकिन सांप्रदायिकता अब तक कहीं न कहीं आदमी के दिमाग में जडे जमाए बैठी है।
इसका स्रोत जानने के लिए मैं अपने बचपन की यादों में खो गया मैने वो तमाम कहानी किस्से याद किए जो दस साल की उम्र में से पहले परिवार, मौहल्ले, तेरहवीं की सभाओं और विभिन्न प्रवचनों में सुने थे। एक किस्सा पकड में आ ही गया जिससे मुझे लगा कि सांप्रदायिकता का एक गहरा स्रोत ये भी हो सकता है।वो ये कि भोजन को लेकर अक्सर सुनता था कि भोजन तीन तरह का होता है राजसी, सात्विक और तामसिक इनकी परिभाषा भी सुनी रखी थी। सबसे घटिया तामसिक भोजन जैसे कि मांस और मदिरा को पढाया जाता है। लगे हाथ यह प्रवचन भी सुना दिया जाता है कि जैसा खावे अन्न वैसा होवे मन। इसके साथ यह भी प्रवचन पिला दिया गया था कि हिन्दुओं में तामसिक भोजन की मनाही है और एक धर्म ऐसा भी है जहां तामसिक भोजन की इजाजत है।
यानि की जो लोग तामसिक भोजन खाते हैं उनका मन भी तामसिक यानि हिंसक हो जाता है। जो लोग राजसी और सात्विक भोजन खाते है वे सपने में भी हिंसा नहीं कर सकते। अब सोचिये तामसिक भोजन कौन लोग खाते है बस जो लोग खाते है वे ही हैं हिंसक समस्याओं की जड। मुझे लगता है कि यही वह प्रवचन है जो सांप्रदायिकता को दिल दिमाग से निकलने ही नहीं देता और एक विशेष धर्म के खिलाफ नफरत पैदा कर देता है।आज की वैज्ञानिक समझ कहती है कि जैसे खावे अन्न वैसा होवे मन जैसी समझ गलत है लेकिन किसी प्रवचन में यह वैज्ञानिक बात कोई नहीं सुनाता। मुझे लगता है अवैज्ञानिक प्रवचनों पर चोट की जाए तो बचपन में ही पिलाई जाने वाली इस घुटटी का असर खत्म किया जा सकता है। और सांप्रदायिकता के एक स्रोत को समाप्त किया जा सकता है।

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